पांचवे आरे के अंतिम समय तक जो सूत्र विद्दमान रहेगा …….. और जगत को सत्यमार्ग का प्रकाश देता रहेगा ….ऐसे पवित्र ग्रंथ ‘श्री दशवैकालिक सूत्र ‘ के रचयिता चौदह पूर्वधर महर्षि श्रुत्र के वली शय्यंभव सूरिजी म., जो जन्म से जैन नही थे ….परंतु जिस प्रकार पारसमणि के संग से लोहा सुवर्ण बन जाता है, उसी प्रकार सद्गुरु के समागम से जिनकी आत्मा में अद्भुत निखार आया , ऐसे पवित्र महापुरुष का चरित्र अवश्य पठनीय है….. तो चले ,हम भी उनके पवित्र जीवन चरित्र की गंगा में स्नान कर अपनी आत्मा को पावन करे* …
चरम केवली जम्बुस्वामी के पट्ट प्रभावक चौदह पूर्वधर महर्षि प्रभव स्वामी अपनें चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन कर रहे थें।
एक बार आवश्यक श्रुत के अध्ययन से श्रमित बना हुआ शिष्य-समुदाय निद्राधीन बना हुआ था – तभी मध्य रात्री में वे अचानक जाग्रत हुए और सोचने लगे , ‘अहो! मेरी काया तो व्रद्ध हो चुकी हे ;जब तक मेरी काया सशक्त थी ,तब तक मेने अपने कर्तव्य का यथाशक्य पालन नही किया ……परंतु अब मेरी काया शिथिल बनती जा रही है ….शाशन की विविध जवाबदारियों को वहन करने में असमर्थ बन रही है ; अतः क्यों न योग्य पात्र को अपने पद पर नियुक्त कर अपने कार्य भार से हल्का बन जाऊ!’ इस प्रकार विचार कर अपने भावी पट्टधर की नियुक्ति के लिए उन्होंने सर्वप्रथम अपने शिष्य समुदाय पर नजर डाली ….
परन्तु उन्हें एक भी शिष्य ऐसा नजर नही आया , जो उनका योग्य उत्तराधिकारी बन सके । इसके बाद उन्होंने श्रावक वर्ग पर नजर डाली । श्रावक वर्ग म कोई योग्य जिव होतो उसे प्रतिबोध देकर , उसे दीक्षित कर, संघ का नेतृत्व -भार उसे सोपा जा सके । परन्तु यह क्या? श्रावक वर्ग में ऐसा एक भी श्रावक नजर नही आया जो उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी बन सके।