अग्निशर्मा ‘सुपरितोष’ नामक तपोवन के रमणीय प्रदेश में आ पहुँचा था। दो घटिका के विश्राम से उसकी थकान दूर हो गई थी। उसके शरीर मे स्फूर्ति का संचार हुआ था। वह खड़ा हुआ। उसने तपोवन में प्रवेश किया ।
चलते चलते वह एक पर्णकुटी के पास आकर खड़ा रहा। पर्णकुटी में उसने एक सौम्य और भव्य आकृतिवाले तापस को देखा ।
– भगवे वस्त्र,
-बड़ी जटा,
-हाथ मे त्रिदंड,
-ललाट पर राख का तिलक,
-पास में कमंडल,
-हाथ मे रुद्राक्ष की माला,
-नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि,
-होठ में से निकलता मंद ध्वनि,
-केलपत्र का मंडप,
अग्निशर्मा उपलक नेत्रों में उस महापुरुष को देखता रहा । उसके ह्रदय में हर्ष उठा । शरीर में सिहरन फैल गई । आँखें विकसित हो उठी, उसने उस महात्मा को पंचाग प्रणिपात कर वंदना की । बार -बार पृथ्वी पर मस्तक टिकाकर वन्दना की । वह बोला :
‘अहो धन्य ! अहो धन्य ! आपका अवतार धन्य है !’
वे महात्मा वास्तव में तपोवन के कुलपति थे।
उनका नाम था आर्य कौडिन्य। अग्निशर्मा के भक्तिपूर्ण वचन सुनकर , कुलपति ने आंखे खोली…. उन्होंने अग्निशर्मा को देखा :
-तिकोना मस्तक,
-गोल-भूरी आंखे,
-बिल्कुल चप्पट नाक,
-छेद जैसे कान,
-लंबे दांत,
– टेढ़े-मेढ़े हाथ,
-लंबी- टेढ़ी गरदन,
चप्पट व छोटा सा सीना,
-लंबा….. टेड़ा पेट,
-मोटी पर छोटी जंघाएं,
-चौड़े-टेढ़े पैर,
-पिले ऊंचे बाल….
कुलपति देखते ही रह गये। वे स्वागत बोले : ‘शरीर चाहे जैसा हो, पर है भावुक और विवेकी। अतिथि है, मुझे उसका सत्कार करना चाहिए !’ उन्होंने अपना ध्यान योग छोड़ा । अग्निशर्मा का स्वागत करते हुए वे बोले…
‘अरे… आसन लाओ…. आसन लाओ… अतिथि का स्वागत हो !’
पर्णकुटी के बाहर बैठे हुए तापसकुमार ने आसन बिछाया और अग्निशर्मा से कहा : ‘महानुभाव, यहां पर बैठिये ।’
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