अग्निशर्मा ने विचार किया
मुझे इस नगर को छोड़कर चले जाना चाहिए। परंतु, मुझे मेरे माता-पिता कही भी जाने नही देंगे । यदि उन्हें कुछ भी कहे बगैर मै चला जाऊँ तो मुझे हर पल प्यार करने वाले मेरे माता-पिता बेचारे दुःखी दुःखी हो जाऐंगे। मुझे भी उनकी याद तो सताएगी ही। क्या करूं ? नगर में रहता हूं तो दुःख है, सब छोड़कर जाता हूं तब भी सामने दुःख है। वास्तव में, यह पूरा संसार ही दुःखमय है।
नही…. नही…. मुझ से अब राजकुमार और उसके मित्रो का अत्याचार सहा नही जाता। कुछ भी हो, मुझे इस नगर से दूर दूर चले जाना चाहिए….। माता-पिता को दुःख तो होगा…. पर ज्यों ज्यों समय गुजरेगा…. त्यों त्यों दुःख हल्का ही जाएगा। और फिर समय बीतने के साथ दुःख भी भुला जाएगा ।
पर मै क्या करूं ? कहां जाउंगा मै ?
ईश्वर जहां ले जाएगा… वहां चल दूंगा । मुझे वैसे भी अब इस जिंदगी से तनिक भी लगाव नही है । जंगल में यदि कोई बाघ-शेर मेरा शिकार कर लेंगे…. तब भी मुझे डर नहीं है। और चोर-लुटेरे मिल गये तो मेरा क्या लूट लेंगे ? चला जाऊँगा कही भी ! ईश्वर के राज्य में अंधेर तो नही है ना ! कही पर भी ठौर ठिकाना मिल जाएगा !’
इस तरह रातभर विचारों की गलियों में भटकता हुआ अग्निशर्मा अंतिम प्रहर में सो गया ।
– तीन दिन अग्निशर्मा के लिए अच्छे गुजरे ।
– यज्ञदत्त औऱ सोमदेवा को भी शांति मिलि ।
-ब्राह्मण-युवान और महाजन भी आशवस्त हो गये ।
– महाराजा पूर्णचंद्र भी निश्चित हो गये ।
परंतु राजकुमार गुणसेन, तीन दिन में काफी अस्वस्थ्, बेचैन और चंचल हो उठा । महाजन के डर से, ब्राह्मण युवानो की चौकसी से और मित्रो के असहकार के कारण गुणसेन अग्निशर्मा के साथ क्रूर खेल रच नही पाया था। वह उदास… निराश… और गुस्से से पागल हो उठा था ।
तीसरे दिन शाम को युवाओं ने अग्निशर्मा के ईर्दगिर्द की सुरक्षा उठा ली थी । महाजन भी अपनी प्रवतियो में व्यस्त हो गये थे । महाराजा पूर्णचन्द्र निश्चित होकर अपने राजकार्य में प्रवर्त हो गये थे ।
गुणसेन ने राजमहल के अपने खंड में मित्रो को बुलाकर गुप्त मंत्रणा की । निर्णय किया गया । ‘दूसरे दिन सवेरे जल्दी अंधरे ही अंधरे अग्निशर्मा को उठा लाना ।’
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