‘महाराजा, प्रजा में काफी विक्षोभ एवं असंतोष पैदा हो गया है ।’
नगरश्रेष्ठि प्रियमित्र ने महाजन की ओर से बात का प्रारंभ किया ।
‘क्यों ? असंतोष और विक्षोभ पैदा होने का कारण क्या है ?’ महाराजा पूर्णचन्द्र ने शांति से पूछा ।
‘महाराजा, राजकुमार गुणसेन, पिछले कुछ अरसे से पुरोहितपुत्र अग्निशर्मा का क्रूर उत्पीड़न कर रहे है । उस बच्चे का शरीर बेडोल है, बदसूरत है ।’
‘बच्चे ऐसे लड़के को देखें तो उनका हँसना, चिड़ाना… मजाक करना…यह स्वाभाविक है, पर इसलिए नगर के महाजन को यहां मेरे पास शिकायत लेकर आना पड़े , यह समझ में नही आता ।’ महाराजा पूर्णचन्द्र ने गंभीर होकर कहा ।
‘महाराजा, बात इतनी होती तो हमें यहां तक आने की आवश्यकता नही थी , पर बात इतनी ही नही है । वरन काफी हद तक बढ़ गई है। बिना इजाजत के पुरोहित के घर में घुस जाना , पुरोहित एवं उसकी पत्नी को डराना, धमकी देना… जोर जबरन उनके पुत्र अग्निशर्मा को उठा जाना, गधे पर बिठाना, कांटे का ताज पहनाना… सुपड़े का छ्त्र रखना… ढोल-काँसे बजाकर पुरे नगर में उसका जुलूस निकालना… फिर अग्निशर्मा को रस्सी से बांधकर कुँए में उतारना… उसे डुबकियां लगवाना… महाराजा,यह हद हो रही है । यह तो एक नमूना बताया है उत्पीड़न का। ऐसे तो कई कारनामे हैं हमारे राजाकुमार एवं उनके दोस्तों के । राजकुमार पाशवी आनंद मना रहे है । जबकि पुरोहित एवं पुरोहित पत्नी, पुत्र की घोर कदर्थना – पीड़ा से दुःखी-दुःखी हो गये है ।’
‘नगरश्रेष्ठि , तुम्हारी कहि हुई बात अत्यंत गंभीर है । राजकुमार का ऐसा बरताव दुष्टतापूर्ण है। मैं उसे उपालंभ दूंगा और अब अग्निशर्मा का उत्पीड़न न हो, वैसी सुचना देता हूं। तुम सब मेरी ओर से पुरोहित यज्ञदत्त को आश्वासन देना। भविष्य में जिसे प्रजावत्सल राजा होना है… उसे इस तरह की हरकतों से दूर रहना चाहिए ।’
महाजन आश्वस्त हुए। महाराजा पूर्णचन्द्र ने महाजन का उचित सत्कार करके बिदाई दी । महाजन को बिदा कर के महाराजा स्वयं रनिवास में पहुंचे । वुद्ध कंचुकी- नौकर ने रनिवास में जाकर महारानी कुमुदिनी को समाचार दिये : ‘महाराजा पधारे है ।’ रानी तुरंत रनिवास के द्वार पर पहुंची । महाराजा का स्वागत किया ।
महाराजा रत्नजडित सिंहासन पर बैठे । रानी ने विस्मय से पूछा : ‘क्या बात है नाथ । आज यकायक ऐसे वक़्त में आपको यहां पधारना पडा ? आपके चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभरी हुई है । क्या कुछ अशुभ…?’
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