महाराजा रिपुमर्दन ने कहा :
‘बेटी, तू’तो वैसे भी संसार में रही हुई भी साध्वी जीवन ही गुजार रही हैं । संसार में रहकर भी तू’तेरी इच्छा के अनुसार धर्माआराधना कर सकती हैं, पर दीक्षा की बात तू’ जाने दे…. मेरी बात मान ले बेटी….।’
‘पिताजी, संसार के तमाम सुखों के प्रति मेरा मन विरक्त हो गया है। अब किस लिए…. किसके लिये संसार में रहू? अब तो मुझे अनंत सिद्ध भगवंतों का बुलावा याद आ रहा है….। मै अब इस संसार में नही रह सकती…। मुझे तो आप अतःकरण के आशीर्वाद दे, पिताजी !’
राजा-रानी ने सुरसुन्दरी को और अमरकुमार को समझाने की काफी कोशिश की । परंतु तीव्र वैरागी बने हुए अमरकुमार और सुन्दरी ने ऐसे ज्ञानगभित ढंग से प्रत्युत्तर दिये कि उन्होंने इजाजत दे दी ।
रतिसुन्दरी ने गुणमंजरी को अपने उत्संग में लेकर अत्यंत आश्वासन दिया और कहा : ‘बेटी इस पुत्र का राज्याभिषेक करने के पश्चात हम भी तेरे साथ चरित्र जीवन ग्रहण करेंगे !’
धनवती ने कहा : ‘हम दोनों ने भी यही निर्णय किया हैं।
परिवार में त्याग का आनंद फैल उठा । नगर में दीक्षा महोत्सव मनाने की महाराजा ने आज्ञा दे दी । इतने में नगर रक्षक दौड़ते हुए हवेली में आये ।
महाराजा से निवेदन किया :
‘महाराजा, नगर के मैदान में एक हजार विद्याधरों के विमान उत्तर आये हैं । हमने तलाश की तो मालूम पड़ा कि सुरसंगीतनगर के विद्याधर राजा रत्नजटी अपने परिवार के साथ पधारे है ।’
सुरसुन्दरी खुशी से उछल पड़ी !
‘पिताजी, मेरे धर्मबंधु आये है… अपन शीघ्र उनको लेने चले ।’
‘नाथ…. आप देर मत करना… जल्दी रथ सजाइये….
‘मंजरी ! माताजी ! सब चलो… मेरा वह भाई आया सही ! साथ मे मेरी भाभियां भी होंगी । मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे !’
एक पल की भी देरी किये बगैर सभी रथ में बैठ गये और कुछ ही मिनटों में रथ नगर के बाहर पहुँच गये । दूर ही से रत्नजटी और चार रानियों को देखकर सुरसुन्दरी रथ में से नीचे उतर आई…। पीछे पीछे सभी रथ में से नीचे उतर गये ।
रत्नजटी चारों रानियों के साथ त्वरा से सामने आया । सुरसुन्दरी के मुँह से अहोभाव के साथ ‘भाई… ‘की पुकार निकली । सामने से ‘बहन’ की आवाज लगता हुआ रत्नजटी दौड़ता हुआ आया ।
भाई- बहन के अदभुत मिलन ने सभी के आँखों के में नमी भर दी । सुरसुन्दरी चारों भाभियों से लिपट गई । एक के बाद एक भाभी ने सुरसुन्दरी को स्नेह से अभिसिंचित किया ।
आगे अगली पोस्ट मे…