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संयम राह चले सो शूर ! – भाग 1

‘महाराजा, हम अवधिज्ञान महामुनि श्री ज्ञानवर के दर्शन-वंदन करनें के लिये दक्षिणार्थ भरत में चंपानगरी में गये थे। वहां से आप के लिये एक संदेश लेकर के आये हैं ।’
सुरसंगीतनगर के राजसभा में उपस्थित होकर दो विद्याधरों ने विद्याधर राजा रत्नजटी के समक्ष निवेदन किया । चंपानगरी का नाम सुनते ही रत्नजटी सहसा सिहासन पर से खड़ा हो गया… और बोला :
‘महानुभाव, जल्दी जल्दी वह संदेश मुझे कह सुनाओ…. मै बड़ा उत्सुक हूं….।’
‘राजेश्वर, आपकी धर्मभगिनी सुरसुन्दरी और उनके पति अमरकुमार-दोनों चारित्रधर्म अंगीकार करने के लिए तत्पर बने है । उन्होंने आपको याद किये है ।
आपकी धर्मभगिनी ने कहलाया है की मेरे भैया से कहना कि चारों भाभियों को लेकर दीक्षा महोत्सव में अवश्य पधारें ।’
रत्नजटी का रोयां रोयां पुलक उठा । उसकी आंखें सजल बन गई । उसका गला रुंध गया… उसने अपने मुकुट सिवाय के तमाम आभूषण उतारकर उन दो विद्याधरों को दे दिये । राजसभा से निकलकर सीधा वह पहुँचा अपने महल में । चारों रानियों को बुलाकर समाचार दिये । रानियां तो हर्ष से नाच उठी । रत्नजटी बोला:
धन्य है बहन तुझे ! संसार के विपुल सुख-भोग मिलने पर भी, उन का त्याग करके तू परमात्मा वीतराग के बतलाये हुए चारित्रमार्ग पर चलने को तत्पर हुई है ! तेरे गुणों का पार नही है ! तू’ सचमुच उत्तम आत्मा है ! आ रहा हूं बहन… अभी आ पहुँचता हूं… तेरे पास… तेरा दीक्षा महोत्सव मै मनाऊंगा !’
रानियों को तैयार होने की सूचना दे दी । रत्नजटी ने अपना विमान सजाया । साथ मे अन्य एक हजार विद्याधरों को आने के लिये सूचना दे दी ।
चारों रानियों के साथ विमान में बैठकर रत्नजटी ने चंपा की ओर प्रयाण किया । पीछे-पीछे एक हजार विमान गतिशील बने। पूरा काफिला चला चंपा की ओर…

आगे अगली पोस्ट मे…

आंसूओं में डूबा हुआ परिवार – भाग 5
November 3, 2017
संयम राह चले सो शूर ! – भाग 2
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