गुणमंजरी का मासूम मन डर की आशंका से कांप उठा ।
‘एक ज्ञानी गुरुदेव का परिचय हुआ….!’
‘मेरे पिताजी ने उनसे पूर्वभव पूछा…. गुरुदेव ने हमारे दोनों के पूर्वभव कह बताये ।’
‘क्या कहा गुरुदेव ने ?’
सुरसुन्दरी ने अपना और अमरकुमार का
पूर्वभव कह सुनाया । गुणमंजरी रसपूर्वक सुनती रही ।
‘यह पूर्वभव जानने के पश्चात हम दोनों के ह्रदय मे संसार के प्रति वैराग्य प्रगट हुआ है । वैराग्य तीव्र बना है, और हम दोनों संसार त्याग कर के चारित्र के मार्ग पर जाने के लिये तैयार हुए है । बस, तेरी ही प्रतीक्षा थी । तू आ जाये… बाद में तुझे सारी बात कर के हम…’
‘नही, नही… नही…. यह कभी नही हो सकता !’
गुणमंजरी एकदम बावरी सी हो उठी । उसकी आंखों से आँसुओ का बांध फुट पड़ा। उसने अपना चेहरा सुरसुन्दरी की गोद में छुपा दिया ।
सुरसुन्दरी ने अमरकुमार के सामने देखा। अमरकुमार की आंखे बंद थी। वह गहरे चिंतन में डूब गया था । उसके चेहरे पर स्वस्थता थी… तेज था….।
‘तो फिर मै भी तुम्हारे साथ ही चारित्र लूँगी !’
गुणमंजरी बोली । सुरसुन्दरी ने अपने उत्तरीय वस्त्र से उसकी आंखें पोछी और कहा :
‘यदि इस पुत्र की जिम्मेदारी नही होती तो अपन तीनों साथ साथ ही चारित्रधर्म अंगीकार करते! पर इस पुत्र के लालन-पालन की जिम्मेदारी तुझे उठानी है ।’
‘नही…. यह नही होगा…, मै पुत्र के बिना जी लूंगी…. पर तुम दोनों के बिना मेरा जीना शक्य नही है….।’
‘मै क्या नही जानती हूं तेरे दिल को ? परंतु उस राग के बंधन को काटना होगा…. मंजरी, इस प्रेम को तोड़ना होगा ।’
‘नही टूट सकता !’ गुणमंजरी फफक फफक कर रो पड़ी । सुरसुन्दरी ने उसको अपने उत्संग में खींच ली । उसके सर पर अपनी कोमल अंगुलिया सहलाने लगी ।
‘तुम दोनों मेरा, पुत्र का, सब का त्याग कर के चले जाओगे ? ?’ गुणमंजरी ने सुरसुन्दरी की आंखों में आँख पिरोते हुए पूछा ।
‘मंजरी ?’
‘क्या तुम इतने पत्थर दिल हो जाओगे ?’
‘मंजरी, क्या एक न एक दिन स्नेही-स्वजनों के संयोग का वियोग नही होगा? मंजरी, संयोगों में से जनमता सुख शास्वत नही है। वह सुख स्वयं दुःख का कारण है। संयोगजन्य सुख में डूबनेवाला जीव, मौज मनानेवाला जीव दुःख का शिकार होता है। अतः अपन को ज्ञानदृष्टि से उन संयोगों के सुख से मुक्त हो जाना चाहिए ।’
‘तो मै भी मुक्त हो जाऊंगी !’
‘पुत्र की जिम्मेदारी है मंजरी, तेरे पर !’ तू पुत्र का लालनपालन कर, वह बड़ा बने…. तेरे उत्तम संस्कार उसे मिले… वह सुयोग्य राजा बने, फिर तू भी चारित्रधर्म की आराधना करना । प्रजा को स्वस्थ, संस्कारी राजा देना भी एक विशेष कर्तव्य है ना ?’
तो तब तक तुम भी रुक जाओ…. संसार में रहकर तुम्हे जितनी धर्मआराधना करनी हो, उतनी करना… मै तुम्हे बिल्कुल नही रोकूंगी ।’
आगे अगली पोस्ट मे…