मृत्युंजय गुणमंजरी को लेकर आ गया था । धनावह सेठ की हवेली में आनंद छा गया था । गुणमंजरी देवकुमार जैसे पुत्र को लेकर आई थी । धनवती ने गुणमंजरी के आगमन के साथ ही पौत्र को अपने पास ले लिया था ।
अमरकुमार और सुरसुन्दरी रथ में से उतकर हवेली में प्रविष्ट हुए, इतने में वहां पर खड़ी गुणमंजरी ने सस्मित स्वागत किया….। सुरसुन्दरी गुणमंजरी से लिपट गई । इतने में धनवती पौत्र को लेकर आ पहुँची । सुरसुन्दरी ने उसे अपनी गोद मे ले लिया । प्यार के नीर से नहला दिया उस को ।
दोनों पत्नियों के साथ अमरकुमार अपने खंड में आया। अमरकुमार ने गुणमंजरी की कुशल पृच्छा की। बेनातट के समाचार पूछे। पुत्र को अपने उत्संग में लिया। टकटकी बाँधे उसे देखा !
सुरसुन्दरी बोल उठी :
‘नाथ, बच्चे में बिल्कुल आपकी ही आकृति संक्रमित हुई है ! उसके चेहरे पर पुण्य का तेज चमक रहा है !’
‘कोई जीवात्मा अनंत पुण्य लेकर यहां जन्मा है। वैसे भी मनुष्य-जीवन अनंत पुण्योदय के बिना मिलता ही नही है ना ? आर्यदेश…. उत्तमकुल यह सब पुण्य के उदय से ही मिलता है !’
‘अरे, इस पुत्र को तो संस्कार देने में जरा भी कमी नही रखेंगी ।’
‘नही रे…. मै तो उसे केवल दूध पिलाऊंगी, बाकी वह रहेगा तुम्हारे ही पास ! उसे संस्कार देने का कार्य तुम्हारे ही जिम्मे रहेगा… उसका लालनपालन भी तुम्हे ही करना होगा ।’गुणमंजरी ने कहा ।
सुरसुन्दरी ने अमरकुमार के सामने देखा । दोनों के चेहरे पर स्मित उभर आया । सुरसुन्दरी मौन रही…. उसने आंखे बंद कर ली । गुणमंजरी सोच में डूब गई… वह बोल उठी :
‘क्यों खामोश हो गये ? ,यह पुत्र तुम्हारा ही है… क्या तुम उसकी माँ नही हो? बोलो… ना ?’
गुणमंजरी सुरसुन्दरी के निकट सरक आई ।
सुरसुन्दरी ने गुणमंजरी के निर्दोष…. सरल चेहरे की तरफ देखा… उसकी भोलीभाली आंखों में झाँका… उसने कहा :
‘मंजरी, पुत्र को माताजी को सौपकर आ कुछ देर, तेरे साथ कुछ बाते करना है ।’ गुणमंजरी पुत्र को धनवती के पास छोड़ आई ।
‘मंजरी, बेटा तो मेरा ही है…। मै उसकी दूसरी माँ हूं । परन्तु यहां पर तेरे जाने के बाद एक नई परिस्थिति पैदा हो गई है ।’
‘क्यो क्या हुआ ?’ गुणमंजरी का मासूम मन डर की आशंका से कांप उठा ।
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