समता के सागर महामुनि ने राजा-रानी को धर्म का उपदेश दिया :
‘राजन, इस मनुष्यजीवन को सफल बनाने के लिये चार प्रकार के धर्म का आचरण करना चाहिए :
सुपात्र को दान देना चाहिए,
शील धर्म का पालन करना चाहिए,
विविध प्रकार की तपश्चयाए करनी चाहिए और
शुभ भावनाओं से भावित बनना चाहिए । इस चतुर्विद धर्म की आराधना करते करते तुम्हे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की प्राप्ति होगी ।’
मुनिराज के करुणारसभरपूर वचन सुनकर राजा रानी दोनों के दिल प्रफ़ुल्लित हो उठे । राजा ने विनयपूर्वक कहा :
‘गुरुदेव, हमारे गुनाहों की क्षमा बक्ष दो, हम सच्चे अतः करण से क्षमा मांगते है आपसे निवेदन करते है की यहीं पर जंगल में हमारा भी पड़ाव है, आप कृपालु वहां पधारकर भिक्षा ग्रहण करे ।’
रानी ने मुनिराज के पास उनका रजोहरण और मुहपत्ति रख दिये थे । मुनिराज, राजा-रानी के साथ उनके पड़ाव पर गये एवं भिक्षा ग्रहण की । रानी रेवती ने भी उल्लास–उमंग के साथ भिक्षा दी । उसके दिल मे उस समय उत्कृष्ट शुभ भाव होने से उसने अनंत-अंनत पुण्योपार्जन कर लिया ।
राजा-रानी दोनों नगर में वापस लौटे । मुनिराज के उपदेश को सुनकर चतुर्विद धर्म का यथायोग्य पालन करने लगे ।
परंतु रानी ने स्वयं करी हुई मुनि की आशातना का प्रायश्चित नहीं किया । दोनों का आयुष्य पूर्ण हुआ । मर कर दोनों देवलोक में देव देवी हुए । देवलोक का आयुष्य पूर्ण हुआ और चंपानगरी में अमरकुमार और सुरसुन्दरी बनें ।
‘हे राजन, रेवती का जीव है तुम्हारी बेटी सुरसुन्दरी ! बारह घड़ी तक मुनि को सताया था ।इसके कटु परिणाम स्वरूप उसे इस जन्म में बारह बरस तक पति का वियोग उठाना पड़ा ।
मुनिराज के गंदे-मैले कपड़े देखकर, उनकी घृणा की थी… इसलिये उसे मगरमच्छ के पेट मे रहना पड़ा कुछ समय के लिये !
मुनिराज को बड़े उल्लास और उमंग से भिक्षा दी थी उसके परिणाम स्वरूप उसे चार विद्याएं मिली और राज्य मिला ।
श्री नवकार मंत्र के प्रभाव से और शील व्रत के प्रभाव से दुनिया मे उसका यश फैला और दिव्य सुख उसे प्राप्त हुए ।’
महामुनि ने पूर्वजन्म की कहानी पूरी की ।
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