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सहचिंतन की उर्जा। – भाग 5

श्रेष्ठि धनावह और सेठानी धनवती भी सुन्दर वस्त्राभूषण सज कर गुरुवंदन के लिये जाने को तैयार हुए ।

ज्यों ज्यों नगर में ढिंढोरा पीटता गया त्यों त्यों हजारों स्त्री – पुरुष ज्ञानधर महामुनि के दर्शन – वंदन करने के लिये नगर के बाहर जाने लगे । नगर में आनन्द और उल्लास का वातावरण फैल गया ।

बाहरी उघान – उपवन हजारों स्त्री – पुरुषो से भरा जा रहा था । महाराजा रिपुमर्दन राजपरिवार के साथ आ पहुँचे । मुनिराज के दर्शन कर के सभी के मनमयूर नाच उठे । सभी ने मुनिराज को तीन प्रदक्षिणा दी । विधिपूर्वक वंदना की । सुखशाता पूछी । महाराजा ने मुनिराज से प्रार्थना की :

‘गुरुदेव …. आपने हमारे नगर को पावन किया है… अब हमें धर्मदेशना देकर हमारे त्रिविध ताप-संताप को शांत करने की महती कृपा करें ।’

मुनिराज श्री ज्ञानधर अवधिज्ञानी महामुनि थे । त्रिकालज्ञानी थे । उच्चकोटि के चारित्रधर्म का पालन करते थे । मगधदेश में उनकी ख्याति थी । महामुनि ने धर्मदेशना प्रारंभ की :

‘महानुभावों,

चार गतिमय इस संसार में मनुष्यजीवन मिलना काफी काफी दुर्लभ है । कर्मों के विवश बनी हुई… अनन्त अनन्त आत्माएं इस संसार में परिभ्रमण कर रही है । अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से संत्रस्त बनती है । जब वैसे विशिष्ट कोटि के पुण्यकर्म का उदय होता है तब जीव को मनुष्य – भव मिलता है । आर्यदेश में जन्म मिलता है । सुसंस्कारी माता – पिता मिलते है ।

मनुष्यजीवन में सद्धर्म का श्रवण तो उससे भी कई गुना ज्यादा पुण्योदय से प्राप्त होता है । सद्गुरु का योग प्राप्त होना बड़ा मुशिकल है । उनके मुँह से मोक्षमार्ग का बोध प्राप्त होने के पश्चात उस बोध पर विश्वास … हढ़ श्रद्धा होना जरूरी है । ‘आत्मा की मुक्ति प्राप्त करने का यही सच्चा रास्ता है। ‘ ऐसी श्रद्धा सुद्ध एवं अविचल होना जरूर है ।

उस श्रद्धा में से वैसा वीर्योल्लास प्रगट होता है कि आत्मा चरित्र – धर्म का पालन करने के लिये तत्पर बन सकती है । यह मनुष्यजीवन चारित्रधर्म का पालन करने के लिये ही मिला हुआ उत्तम जीवन है ।

पुण्यशाली , आत्मा पर लगे हुए अनन्त अनन्त कर्मों को तोड़ने का महान पुरुषार्थ चारित्रमय , संयममय जीवन में ही हो सकता है ।

संसार के वैषयिक सुख तो हलाहल तालपुट जहर से भी ज्यादा खतरनाक है । उन सुखों में लीन नही होना चाहिए । सुखों का राग और दुःखों का द्वेष जीव को मोहांध बना देता है । मोहांध बना हुआ जीव अनेक अकार्य करता है । अनन्त अनन्त पापकर्मों को उपार्जित कर के नरक इत्यादि दुर्गतियों में भटक जाता है ।’

महामुनि की धर्मदेशना पुष्करावर्त मेघ की भांति बरस रही है । श्रोतागण र्सनिमग्न बनकर श्रवण कर रहे है । अमरकुमार और सुरसुन्दरी तो आत्मविभोर हो उठे है । उनके दिल में दबी दबी वेराग्यभावना पुरबहार में खिलने लगी है।

देशना पूर्ण होती है । महाराजा रिपुमर्दन खड़े हुए । विनयपूर्वक हाथ जोड़कर सवाल करते है :

‘गुरुदेव , मेरी लाडली बेटी सुरसुन्दरी ने पूर्वजन्म में ऐसे कौन से कर्म बांधे हुए थे कि जिस के परिणामस्वरूप उसे इस जनम में बाहर बहार बरस तक का पतिविरह भोगना पड़ा ? इतने कष्ट , आफत और संकटों का सामना करना पड़ा ?

गुणनिधि गुरुदेव । आप तो ज्ञानी है , हमारे पर बड़ी कृपा होगी यदि आप अपने श्रोमुख से इन बातों का समाधान देने की कूपा करेंगे ।’

महाराजा रिपुमर्दन विनयपूर्वक अपने आसन पे बैठे । सभी के दिल – दिमाग उत्सुकता से एकाग्र बन गये महामुनि के प्रति । गुरुदेव क्या जवाब देते है राजा के सवाल का ? कइयों को राजा के सवाल से ताज्जुब भी हुआ । सभी परिचित नहीं थे सुरसुन्दरी के जीवन के उस आंसू-उदासीभरे हिस्से से ।

‘सुरसुन्दरी -अमरकुमार के जीवन में दुःख ? वह भी बाहर बाहर बरस की जुदाई … सुरसुन्दरी का जीवन संकट की खाई में ?’ कईयों को कल्पना से ही कंपकंपी सी हो उठी थी ।

इधर सुरसुन्दरी स्वयं ही उत्सुक थी अपना पूर्वजन्म जानने के लिये । वह यह भी जानना चाहती थी कि इतना कुछ बीतने पर भी अमरकुमार के प्रति उसका दिल जुड़ा हुआ ही क्यों रहा ?

अमरकुमार के दिल में पलभर के लिये अपराधभाव की ग्रंथि कोंध उठी… पर उसने अपने मन को सम्हाल लिया ।

सभी बेचैन थे गुरुदेव को सुनने के लिये ।

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