जिनाज्ञा का संपूर्ण पालन चारित्र जीवन में ही शक्य है …. निर्ग्रन्थ जीवन में ही पूर्णतया पालन हो सकता है…।’
‘चारित्रजीवन सरल नहीं है … बड़ा दुष्कर है … बड़ा कठिन होता है वह जीवन । ।’
‘फिर भी वह जीवन जीना अशक्य या असंभव तो नहीं है ना ? हजारों स्त्री – पुरुष वैसा जीवन जी रहे है ना…? तो फिर अपन भी क्यों वैसा जीवन नहीं जी सकते ?’
‘इसके लिये.. ऐसे जीवन के लिये अपूर्व सत्त्व चाहिए।
‘वैसा सत्त्व अपने में भी प्रगट हो सकता है ।’
‘ज्ञानमूलक वैराग्य चाहिए …।।’
‘आ सकता है वैसा वैराग्य अपने में भी ।’
‘इन्द्रियों की उतेजना , कषायों की विवशता … और कष्टों को सहने की अक्षमता … लाचारी … ये सब उस वैराग्य को तहस-नहस कर कर देते है ।’
‘वैराग्य को स्थिर द्रढ़ और वुद्धिगत रखने के लिये तीर्थंकर भगवन्तों ने अनेक उपाय दर्शाये है । यदि ज्ञान में मग्नता हो… बाह्मअभ्यंतर तप में लीनता रहे … ध्यान में तल्लीनता रहे … तो वैराग्य अखंड-अक्षुण्ण रह सकता है ।’
‘परंतु राग-द्वेष के प्रबल तूफान उठे तब फिर ज्ञान-ध्यान और त्याग – तप भी कभी नाकामियाब बन जाते है, आत्मा को बचाने के लिए ।’
‘राग – द्वेष का निग्रह किया जा सकता है , संयम किया जा सकता है , अनुशासित किये जा सकते है …।’
‘पर यदि संयम रखने में सफल नहीं हुए तो ??’
‘ऐसा डर क्यों ? ऐसी आशंका क्यों ? जिनाज्ञा के मुताबिक पुरुषार्थ करना , अपना कर्तव्य है…।। फल की चिंता करने से क्या ? निष्फलता की तो कल्पना ही नहीं करनी चाहिए … परमात्मा का प्रेम — उनकी भक्त्ति ही अपन में ऐसी शक्त्ति का संचार करती है कि अपन परमात्मा की आज्ञा के पालन के लिये शक्तिमान बन सकते है। भक्ति में से अपूर्व शक्त्ति पैदा होती है।
अमरकुमार सुरसुन्दरी के सामने देखता ही रहा….। उसके चेहरे पर अपूर्व तेज की आभा दीप्तिमान थी । उसकी आंखों में से वैराग्य की गंगा जैसे बह रह थी । अमरकुमार के दिल-दिमाग पर सुरसुन्दरी की बातें बराबर असर कर रही थी । चारित्रधर्म–संयमधर्म की गहरी चाहना धीरे-धीरे प्रगट हो रही थी ।
सुरसुन्दरी ने कहा :
‘नाथ , सद्गुरु का योग प्राप्त हो … और संयमधर्म स्वीकार करने तीव्र अभीप्सा जाग उठे तो क्या आप मुझे अनुमति दोगे ?’ एकदम मुदु , कोमल और स्नेहार्द्र स्वर में सुरसुंदरी ने पूछा ।
‘तो क्या तू अकेली ही चारित्र के मार्ग पर जाने का सोच रही है ?’
‘आपके सर पर तो राज्य की जिम्मेदारी है ना ?उसे भी तो वहन करना होगा ?’
‘नहीं, तू यदि संसार को छोड़ चले तो फिर मैं संसार में रह ही नहीं सकता । तेरे बिना का संसार मेरे लिये शून्यवत है ।’
‘गुणमंजरी वह मैं ही हूं, नाथ ।’
‘नहीं , गुणमंजरी वह गुणमंजरी है , तू वह तू है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…