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बिदाई की घड़ी आई । – भाग 8

अमरकुमार महाराजा के पास आकर गमगीन चेहरे से बैठ गया था । महाराजा ने अमरकुमार के सामने देखा। अमर का हाथ अपने हाथ मे लेकर बड़े प्यार से कहा :

‘कुमार,  मेरी बातों का जरा भी बुरा मत मानना—-मन मे और कुछ मत सोचना । गुणमंजरी मुझे जान से भी प्यारी है । दूर देश में उसे बिदा कर रहा हूं ।

तुम्हारे पर पूरा विश्वास है । फिर भी कुमार, तुमसे कहता हूं, कभी उसका त्याग मत करना । उसका दिल मत दुःखाना  ।’ बोलते बोलते महाराजा गदगद हो उठे।

‘पिताजी, आप निश्चित रहना, ‘प्राण जायेगे पर वचन नही जायेगा  ।’

अमरकुमार ने महाराजा को वचन दिया ।

‘बेटी सुरसुन्दरी,’ सुरसुन्दरी को अपने निकट बुलाकर राजा ने कहा  : ‘गुणमंजरी तेरे भरोसे पर है ।’ बोलते  बोलते राजा जोरो से रो पड़े । अमरकुमार महाराजा के हाथ पकड़कर अपने खंड में ले गया । काफी आश्वासन देकर शांत किया ।

भोजन का समय हो चुका था । आज सभी को महाराजा के साथ राजमहल में भोजन करने का था । इसलिये सभी राजमहल में पहुँचे । भोजन से निवृत होकर सभी बैठे थे इतने में मृत्युंजय ने आकर समाचार दिये  :

‘महाराजा सभी जहाजो को पूरी तरह देखभाल कर तैयार कर दिये है । जहाजों को सजाने के काम चालू है।’ सारा माल सामान आज शाम तक जहाजों में भर जायेगा ।’

‘तुम्हारी खुद की तैयारियां हो गई, मृत्युंजय ?’ सुरसुन्दरी ने मृत्युंजय के सामने देखते हुए पूछा ।

‘जी हां, मै तो चंपा तक आने वाला हूं ।’

‘और चंपा में हमारा आतिथ्य लेकर वापस लौटना है ना  ?’

‘किसके लिये अब यहां वापस लौटना है, देवी  ? दुनिया में एक मेरी मां थी… उसका भी कुछ दिन पहले ही स्वर्गवास हो गया ।’

तुम्हे तो यहां पर महाराजा की सेवा में रहने का है ना ?’

‘महाराजा के पास तो मेरे से भी बढ़कर के श्रेष्ठ  वीरपुरुष है। देवी, मेरा मन तो चंपा में ही रहने का है । यदि महाराजा अनुज्ञा दे’ तो  !’

‘ठीक है, वहीं रह जाना मृत्युंजय, परंतु जब गुणमंजरी को यहां आना हो तब तू उसे लेकर आना ।’

‘आपकी आज्ञा मै सहर्ष स्वीकार करता हूं  ।’मृत्युंजय की प्रसन्न मुखमुद्रा देखकर सुरसुन्दरी की आंखों में आंसू आ गये ।

‘कल सवेरे प्रयाण का मुहूर्त है, मृत्युंजय  !’ अमरकुमार ने कहा ।

मुहूर्त का समय सम्हाल लेंगे । संध्या के समय यदि आप पधार कर जरा निगाह डाल दें तो….।’

सारी तैयारियां हो चुकी थी । मालती और उसका पति भी तैयार हो गये थे  ।

सवेरा हुआ । सुरसुन्दरी और गुणमंजरी को बेनातट नगर के प्रजाजनों ने आंसूभरी बिदा दी । दिल की अथाह गहराइयों की शुभेच्छाएँ दी । बिदाई की घड़ी में गुणमंजरी मां से लिपट गई ।  सुरसुन्दरी ने राजा-रानी को प्रणाम किये । राज्य वापस सुपुर्द कर दिया । सभी जहाज में बैठ ।

‘जल्दी वापस आना… हमे भूल मत जाना…. तुम्हे हम भूल नही पायेंगे…. बेनातट को भुलाना नही…. हमे याद करना…. हम तुम्हारी राह देखेंगे…. आना…. लौट आना… जल्दी जल्दी आना…’ के अश्रुपूरित स्वर उभरने लगें और जहाजों ने लंगर उठाया… जहाज गतिशील बनें ।

राजा-रानी अपने जिगर के टुकड़े कों दुरसुदूर जाते देखकर अपने आप पर काबू नही रख सकें । दोनों बेहोश…. गिर पड़े । इधर जहाज में गुणमंजरी की चीख दबी-दबी सी उभरी । रुमाल हिलते रहें । हाथ हिलते रहें । दूर दूर दरिये पर की

शितज में जैसे जहाज समा गयें  ! !

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