विमलयश ने महाराजा को प्रणाम किये और उसके समीप में बैठ गया ।
‘उस परदेशी सार्थवाह की बात तो मुझे गुणमंजरी ने की ! चोर निकला साहूकार के भेष में !’
‘महाराजा, मै उसी विषय में आप से बात करने आया हूं ।’
‘कहो…. और क्या विशेष समाचार है उस चोर के बारे में ?’
‘वह सचमुच चोर नही है…। मैने जान बूझकर उसे ‘चोर’ के रूप मे पकड़वाया है…. मेरे वहां पर चोरी हुई ही नही है ! !’
‘ऐसा क्यों ? क्यो इस तरह करना पड़ा ?’
‘चूंकि उस परदेशी सार्थवाह ने मेरे साथ बारह साल पहले धोखा किया था। मुझे दुःख दिया था….।’
‘तब तो उसे कड़ी सजा करनी चाहिए । मै स्वयं करूंगा उसे सजा ।’
‘सजा तो मैने कर ही दी है । उसने क्षमा भी मांग ली है… महाराजा वह मेरा स्वजन है…। मै छद्मवेश में हूं… सचमुच मै पुरुष नही हूं… स्त्री हूं !’
महाराजा गुणपाल तो ठगे से रह गये ! !
‘क्या बोल रहा है तू विमल ?….’ महाराजा विमलयश के सामने देखते ही रहे । ‘कुछ समझ में नही आ रहा है… विमल… तू कुछ साफ-साफ बात कर ।’
‘वह आया हुआ परदेशी सार्थवाह मेरा पति अमरकुमार है…। मै उसकी पत्नी हूं…. मेरा नाम सुरसुन्दरी है ।’
‘तो फिर यह पुरुष वेश… पुरुष रूप….?’
‘विद्याशक्ति है मेरे पास, महाराजा ! विद्याशक्ति से मै मनचाहा रूप बना सकती हूं…’
‘तो मेरे समक्ष, मेरे देखते हुए तू स्त्री का रूप बना सकेगा ? कर दिखा तो ?’
विमलयश ने वही पर पद्मासनस्थ बैठकर रूपरावर्तिनी विद्या का स्मरण किया….। वह स्त्री रूप हो गया….। महाराजा भीतर के कमरे में जाकर गुणमंजरी के कपड़े ले आये । विमलयश ने वह वस्त्र धारण कर लिये ।
‘ओह… तू तो सचमुच की स्त्री है…पर यह रूपपरिवर्तन क्यों करना पड़ा तुझे ?’
‘,महाराजा, वह बड़ी दास्तान है, पर आपको तो बतानी ही होगी । मै इसलिए यहां पर अभी आयी हूं । ताकि आपके मन में मेरे लिये कुछ भी गलतफहमी ना रहे ।’
सुरसुन्दरी ने अपने नगर, माता—पिता, सास—-ससुर वगैरह का परिचय दिया । इसके बाद अमरकुमार के साथ विदेशयात्रा पर निकली और यक्षद्वीप पर अमरकुमार उसका त्याग कर के चला गया…. तब से लगाकर बेनातट नगर में रत्नजटी उसे छोड़ गया—-वहां तक कि सारी बातें कह सुनायी…। महाराजा गुणपाल तो सुरसुन्दरी की जीवन कहानी सुनकर स्तब्ध हो उठे ।
आगे अगली पोस्ट मे…