अमरकुमार ने बराबर ध्यान से विमलयश के चेहरे को देखा । उसने मन ही मन निर्णय किया कि, राजा तो सचमुच सो गया है ।’ वह पुनः अपनी जगह पर बैठ गया । मन में कुछ सोचा और घी के बरतन उठाकर अपने होठों से लगाया… एक घूंट… दो घूंट पिये…. इतने में तो विमलयश एकदम खड़ा हो गया, और अमरकुमार का हाथ पकड़ते हुए वह चिल्लाया :
‘क्यो बे चोर, अब भी बोल दे कि ‘मै चोर नही हूं । यह चोरी नही कर रहा है तो क्या कर रहा है ? अब तेरा अन्तकाल नजदीक आ गया है !’
अमरकुमार तो डर से मूढ़ सा हो उठा…. तुरंत बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा । विमलयश ने ठंडे पानी के छीटे देकर हवा डालनी चालू की । अमरकुमार ने आँखे खोली । डर के मारे शरीर के हवा से कांपते सूखे पत्ते की भांति थर्रा रहा था । वह खड़ा हुआ…. उसकी आंखों में से आंसू गिरने लगे ।
‘तुझे बचपन से ही चोरी करने की आदत लगती है… नही ? तू है कौंन ? किस नगर का रहनेवाला है ? तेरे माता पिता कौंन है ? शादिशुदा है या कंवारा है ?’
अमरकुमार ने सिसकिया भरते हुए अपना परिचय दिया :
‘ महाराजा, मै चम्पानगरी के धनावह सेठ का एकलौता बेटा अमरकुमार हूं । चंपा की राजकुमारी सुरसुन्दरी और…. मै हम दोनों साथसाथ अध्धयन करते थे । एक दिन मजाक में मैने उसे पूछे बगैर उसके आंचल में बंधी हुई सात कोडिया ले ली और सब को मिठाई बांटी । उसने मुझे काफी खरी-खोटी सुनायीं । मैने मौन रहकर सब कुछ सुन लिया । पर मैने मन में इस घटना की गांठ बांध ली । फिर तो किस्मतवश हमारी शादी हुई । हम परदेश जाने के लिए निकले । रास्ते मे यक्षद्वीप आया। और पुरानी कीनाकशी को याद करके मैने उसे वहीं पर अकेली भरनींद में छोड़ दिया । उसकी साड़ी की छोर पर सात कौडी बांधकर लिख डाला कि ‘सात कौड़ी में राज ले लेना ।’
‘औह…. अरे…! उस बैचारी का क्या हुआ होगा ? मुझे कैसी दुर्बुद्धि सूझी ? उस द्वीप पर कोई भी आदमी नही मिलता था… और वहाँ का यक्ष भी बड़ा क्रूर था ! !
‘तो क्या तुम्हें जरा भी दया नही आई…. इस तरह अपनी अबला पत्नी का त्याग करते हुए ? विमलयश ने सवाल किया ।
और अमरकुमार फुट फुट कर रो पड़ा । रोते रोते वह बोला :
‘मैने स्त्री-हत्या का घोर पाप किया है । मैंने विश्वासघात किया, धोखा दिया । मै महापापी हूँ । वह मेरे पाप इसी भव में उदय में आये है आज । महाराजा, मुझे आप सूली पर लटका दीजिये…. मुझे जीना ही नही है ! ! ! ‘
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