विमलयश अपने कमरे में चला गया ।
इधर अमरकुमार आशा के तंतुओं से बन्धा हुआ अपने कमरे में पहुँचा । कई तरह से विचार आ-आकर उसे घेरने लगे ।
‘सवा सेर घी… इस राजा के पैरों के तलवे में घिसने का। क्या इतना घी पैरो में उतर जायेगा ? उसके पैर दिखने में तो कितने मृदु है… कोमल है….. और यदि घी इसके पैरो में नही उत्तर पाया तो ? उतर गया तो छुटकारा हो जायेगा… और किसी भी जहाज में बैठकर वापस चम्पानगरी पहुँच जाऊँगा ! फिर से व्यापार करके धन तो कमा लूंगा । और व्यापार नही करू’ तो भी चलेगा । पिताजी के पास ढेरो संपत्ति है…सब आखिर मेरी ही है ना ?’
मालती ने भोजन के थाल लेकर कमरे में प्रवेश किया । अमरकुमार को खाने की रुचि ही नही थी। उसने भोजन करने की मनाही कर दी ।
‘भोजन तो कर लो भाई…. सुख दुःख तो आते जाते है… जैसे करम किये हो वैसे फल भुगतने ही पड़ते है !’
अमरकुमार के दिल पर मालती के शब्द तीर बनकर चुभ रहे थे, पर उसने बरबस सुन लिया। उसका दिल दो-टूक हुआ जा रहा था। दिल पर पत्थर रखकर थोड़ा सा भोजन कर लिया ।
मालती चली गई । अमरकुमार वही जमीन पर लेट गया। उसे नींद आ गई । जब वह जगा तो सांझ ढलने को थी। शाम को उसने केवल दूध ही पिया । और विमलयश के संदेश की प्रतीक्षा में बैठा रहा ।
रात का प्रथम प्रहर चालू हुआ ही था कि बुलावा आ गया । अमरकुमार पहुँचा विमलयश के कमरे में । सवा सेर घी से भरा हुआ पात्र उसे सौपा गया ।
‘सुनो सेठ मै सो जाऊं… मुझे नींद भी आ जाये…. तो भी तुम्हारा काम चालू ही रखना। चार प्रहर में इतना घी पैरो के तलवे में घिस घिस कर उतार देना है !’
‘जी हां, आपकी आज्ञा के मुताबिक करूँगा ।’
विमलयश सो गया। अमरकुमार ने विमलयश के तलवे में घी घिसना प्रारम्भ कर दिया। शयनखंड में स्वर्णदीपको का उजाला फैल रहा था ।
एक प्रहर बीता, दूसरा प्रहर भी समाप्त हो गया । अमरकुमार ने घी के बर्तन में नजर डाली तो अभी तो पाव भाग का घी भी कम नही हुआ था। वह घबरा उठा। ‘ओह… भगवान ! दो प्रहर तो बीत गये…. केवल दो प्रहर ही बाकी है…. अभी तो इतना सारा घी बाकी है । किसी भी हालत में इतना घी तो पैरो के तलवे में उतरने से रहा….। अब क्या करूँ ?’ उसके गात्र शिथिल होकर कांपने लगे । ‘यहां से मेरा छुटकारा नही होगा। जिंदगी यही बितानी होगी क्या ? औह…. मै क्या करूँ ? कुछ सूझता भी तो नही है ।’
वह खड़ा हुआ । विमलयश सर पर कपड़ा पूरा ढक कर सोया हुआ था ।
आगे अगली पोस्ट मे…