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करम का भरम न जाने कोय – भाग 5

विमलयश ने मालती को अमरकुमार का कमरा बता दिया । हालाँकि मालती समझ तो गई थी कि ‘यह मेहमान गुनहगार है ।’ परन्तु उसने विमलयश को ‘कौन है ? कहां से आये है… क्या नाम है ? वगैरह कुछ भी पूछना उचित नहीं माना । शाम के समय मालती ने अमरकुमार के कमरे में जाकर पानी और भोजन रख दिया । सोने के लिये बिछोना बिछा दिया । फिर एक निगाह से अमरकुमार को देखा …’ लगता तो है कोई खानदान घर का युवान… क्या पता , क्या अपराध किया होगा इसने ?’ मोनरूप से काम निपटाकर मालती चल दी ।

विमलयश गुणमंजरी के पास गया । गुणमंजरी ने खड़े होकर विमलयश का स्वागत किया । उसने विमलयश को प्रफुल्लित और प्रसन्न देखा… वह शरमा गई… वह समझ रही थी कि ‘अब प्रतिज्ञा पूर्ण होने में केवल तीन दिन का समय शेष है… इसलिए विमलयश काफी खुश – खुश नजर आ रहा है ।’

‘देवी तुम तीन दिन अब पिताजी के घर पर जाकर रहो तो ठीक रहेगा ।’

‘पर क्यों ?’ गुणमंजरी चोंक उठी।

‘यह मन बड़ा चंचल है ना ? शायद कोई गलती कर बैठे तो । प्रतिज्ञा अच्छी तरह पूरी हो जाये फिर चिन्ता नहीं ।’

गुणमंजरी का चेहरा शरम से लाल हो गया । उसने विमलयश की आज्ञा बिना कुछ दलील किये मान ली… मालती को योग्य सूचनाएं देकर गुणमंजरी अपने पिता के महल पर चली गई ।

विमलयश के लिये अब मैदान साफ हो गया था । अमरकुमार को सबक सिखाने की योजना उसने मन में सोच ली थी… उसने एक रात यू ही बीतने दी… वह अमरकुमार के पास गया ही नहीं । इधर अमरकुमार अधीर हो गया था…’कब राजा मुझे बुलायेगा ? यहां पर खाने की-रहने की सुविधा अच्छी दी है… पर वह तो सूली पर लटकाने से पहले अपराधी को मनपसंद भोजन या अन्य कुछ देने की पद्धति होती है ।’ वह डर से सहम उठा। उसके शरीर पर पसीने की बूंदे उभरने लगी ।

‘नहीं … नहीं मैं विनम्र शब्दों में प्रार्थना करूंगा… सत्य हकीकत बता दुंगा … मुझे जरूर मुक्ति मिल जायेगी … राजा इतना तो निर्दय नहीं होगा । वर्ना तो मेरे यहाँ पर आते ही वह गुस्से से बोखला उठता… और मुझे सजा सुना देता ।’

मेरे जहाजों में यह सारा चोरी का माल आया कैसे ? क्या मेरे आदमियों ने चोरी की होगी ? या फिर किसी कोतुहली व्यंतर ने यह कार्य किया होगा ? हां… मैंने बचपन में आचार्यदेव से ऐसे व्यंतरों की कहानियां सुनी थी… केवल परेशान करने के लिये वयंत्रलोग ऐसा करते रहते है । ओरों को दुःख देने में कुछ देवों को … कुछ आदमियों को आनन्द मिलता है … मजा आता है ।

‘और हां… सुरसुन्दरी को यक्षद्वीप पर छोड़कर मुझे भी आनंद हुआ था ना ? ओह । उस पतिव्रता सती नारी को मौत के मुँह में फेंक देने का घोर पाप क्या आज उदय में आ गया ?…’ अमरकुमार को सुरसुन्दरी की स्मृति हो आई । और उसकी आँखे बहने लगी …

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