बरस पर बरस गुजरते है ।
अमरकुमार के आगमन का कोई समाचार नही मिल रहा है। न ही और कोई साधन है जिससे
अमरकुमार का अता-पता मिल सके। विमलयश के दिल मे कभी नैराश्य छा जाता है ।
कल्पनाओ का दर्पण घुँघलाने लगता है…. पर अवधिज्ञानी महर्षि के वचन याद करके
वह मन को धीरज देता है ….. ‘आएंगे’ ….. जरूर ! और यही पर आएंगे। जितनी
जुदाई की घड़ियां गिननी होगी वह तो गिननी ही पड़ेगी….। सुबह होने से पहले
कभी-कभी अंधेरा और घना हो जाता है !’
श्री नवकार मंत्र के ध्यान में और परमात्मा के पूजन में उसकी आत्मा अपूर्व
आनंद की अनुभूति प्राप्त करती है। गुणमंजरी के साथ जुड़ते हुए ….. गाढ़ प्रगाढ़
बनते हुवे सख्यभाव से उसको भीतरी तृप्ति से कभी-कभी लबरेज कर रखता है। प्रजा
के असीम प्यार और आदर के नीर उसे हमेशा तरोताजगी देते रहते है …….।
प्रकृति का सौंदर्य….. विणा के तारो में से उठती स्वर लहरी …. इन सब मे वह
डूब जाता है …..। ध्यान में डूबकर आध्यात्मिकता का आनंद लुटता है ।
पिछले पाँच -सात दिन में विमलयश राजसभा में गया नही था । उस अरसे में एक दिन
मालती बाहर से समाचार लाई :
महाराजकुमार , ‘समूचे नगर में हायतौबा मच गया है ।’
‘क्यों, क्या हुआ है ?
एक चोर जगह -जगह पर चोरी कर रहा है ।
‘नगररक्षक नही पकड़ सके क्या चोर को ?’
‘नही …. बिल्कुल नही, जब नगररक्षक नही पकड़ पाए चोर को …..तब प्रजाजनों ने
राजसभा में पुकार की ….. तब अपने ही नगर का एक सेठ चोर को पकड़ ने के लिए
तैयार हुआ…… ‘रत्नसार’ उसका नाम है ।
‘क्या पकड़ लिया उसने चोर को ?’
अरे ! वह क्या पकड़ेगा ? पकड़ने गया ….. तो खुद ही लूट गया !
क्या कह रहि है तू ? कैसे हुआ ? विमलयश को बात सुनने में मज़ा आ रहा था ।
आगे अगली पोस्ट मे…