विमलयश का उज्ज्वल यश फैलने लगा। सबकी जबान पर विमलयश के गुण गाये जाने लगे।
राजसभा में विमलयश की प्रशंसा होने लगी थी। राजकुमारी अपने हदयवल्लभ की
प्रशंसा सुनकर झूमती है… खुश हो उठी है । उसका प्रेम दिन ब दिन गहरा औऱ गाड़ा
हो रहा था ।
चुंगी से मिलने वाला सारा धन वह गरीबो को बाट देता है । राजपुरुष को भी उदारता
से भेंट सौगाते देते रहता है ।
विमलयश के दिल को जीतने के लिए गुणमंजरी आतुर थी । उसके चरणों मे अपना प्रेम
निछावर करने के लिए वह तत्पर थी । ऐसा करने में तो अपनी कुर्बानी देनो को भी
तैयार थी। समय समय पर गुणमंजरी विमलयश से मिलती रहती और तत्वचर्चा भी करती ।
एक बार मजाकिया लहजे में विमलयश ने गुणमंजरी को पूछ लिया : ‘क्या इस तरह मुझसे
मिलने में तुझे डर नही लगता ? मेरे साथ इस तरह बतियाते हुए महाराजा तुझे देख
ले तो ? ‘
तब गुणमंजरी ने बेझिजक जवाब दिया था ।
‘यदि मेरे प्रियतम का प्रेम सच्चा होगा तो फिर मुझे डर किस बात का ? बडी से
बड़ी कठिनाई भी मै उल्लाग जाउंगी यदि तुम्हारा साथ मिला तो !’
‘पर कभी प्रेम के सागर में कमी आ गायी तो ?’ कुमार…. प्रेम के सागर में कभी
कमी आती ही नही… प्रेम तो सदा-सर्वदा प्रवर्धमान होता है…. प्रेम आकाश से
भी ऊंचा होता है… उसे तो वज्र से भी काटा नही जा सकता ।’
विमलयश गुणमंजरी का जवाब सुनकर प्रसन्न हो उठता। प्रेम और वासना के बीच का
अंतर गुणमंजरी भली भांति जानती है, यह बात जानकर विमलयश आशवस्त था ।
नवसृष्टि के, नवजीवन के, शांत, सुंदर और सुमधुर वातावरण में विमलयश अपने पूर्व
जीवन के कटु प्रसंगों को धीरे धीरे विस्मृति के भवर में डालता रहता है। फिर भी
अमरकुमार की स्मृति अविकल बनी रहती है… । अमरकुमार की प्रतीक्षा की ज्योत
हमेशा जलती ही रहती है। बेनातट नगर में एक के बाद एक बरस गुजर रहे है…. ।
कभी वह नगर से ऊब जाता है तो दूर दूर ग्राम्य प्रदेशो में चला जाता है….।
वहां भी अपनी स्नेहसोरभ को चौतरफा फैला देता है….। ग्रामीण प्रजा की गरीबी
दिल खोल कर दान देकर दूर करता है ।सुरम्य हरियाली… हरे भरे खेत…. कल कल
बहते हुए झरने…. वन फूलो की मदिर मदिर गंध….
प्रकर्ति के इन सुनहरे दृश्यो को वह जी भर पीती है । प्रकृति की गोद मे उसका
अंग अंग पुलकित हो उठता है । कभी उस उन्मुक्त, स्वच्छ,सुनदर वातावरण के आगे
राजमहल का अवरुद्ध जीवन उसे तुच्छ प्रतीत होता है ।
आगे अगली पोस्ट मे…