बेनातट नगर का समुद्री किनारा यानी पुष्पित प्रफुल्लित प्रकृति की सौंदर्य
लीला। उषाकाल में एकान्त प्रकृति की गोद मे समुद्र के किनारे कभी अभिनय सिंगार
रचकर अपने प्रियतम की प्रतीक्षा करती हुई सुरसुन्दरी घूम रही थी। अपने मूल रूप
में आकर वह दूर दूर उछलते उदघि तरंगों में अमरकुमार के जहाजो का दर्शन करती
थी।कभी वो विमलशय का नाम रूप-धारण करके बेनातट के रमणीय अरण्य में चली जाती
थी।मिलन व्याकुल होकर दौड़ती जाती नदियां भरने हरीभरी धरती पर मुक्त उलास से
नाचतेे कूदते हिरनी-हिर्निया, जलाशय में किलकारी मारते सारस युगल मस्ती से
नाचते गाते मयूर युगल सहकार-व्रक्ष को झूमती हुई लिपटती माधव लता प्रकृति के
अपार सौन्दर्यदर्शन में वो मुग्ध हो जाती। उसके कोमल हृदय में परम तत्व की
दिव्य अनुभूति पैदा होती ओर वो परमत्व के ध्यान में लीन हो जाती थी।
कभी पारिजात के झूले पर झूलती हुई सुरसुन्दरी संध्या की खिलती-खुलती स्वर्णिम
आभा को देखती ही रह जाती। सन्ध्या के रंगों में जीवन के सत्य का वास्तविक
वर्णन करती और आत्मा की शुचितम अनुभूति मे गहरे उतर जाती। कभी जब आकाश में से
चन्द्र की छिटकती चांदनी अवनी पर आहिस्ता आहिस्ता उतर रही हो जूही ओर रातरानी
के फूल अपनी खुशबू को फैलाते होते मन्दिर एवं मादक हवा की भीगी भीगी लहरे
रोमांच का अनुभव करवाती होती ऐसे स्निग्ध ओर सुगन्धित वातावरण में सुरसुन्दरी
पारिजात के व्रक्ष के तले पेड़ से सट कर बैठी रहती और अमरकुमार की बाट
निहारती।पर जब उसे अमरकुमार का साया भी नजर नही आता तब उसका खिला खिला चेहरा
मुरझा जाता। उसके गौर वदन पर ग्लानि छा जाती। उसकी आँखों मे आंसू भर आते।आखिर
वह प्रेमसरिता सी नारी थी ना ! उसका विषाद भरा ह्रदय कभी उसे अतीत की
स्मृतियों के खंडहर में ले उड़ता उसका रोया रोया कांप उठता पुराने जख्मों की
याद से। फिर भी उसमें, उसकी आत्मा के अणु अणु में सतीत्व का सत्व बहता
था।उसमें सतित्व की दृढ़ता थी। सतित्व का शुद्ध तेज था। वह अपने आप पर काबू पा
लेती। शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान में डूब जाती थी। मालती खुशहाल थी। चूँकि
उसने विमलशय का बड़ा काम कर दिया था। सवा लाख रुपये का पंखा बेचकर उसने विमलशय
के सामने रुपयों का ढेर लगा दिया था।
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