सुरसुन्दरी रानियों के साथ अपने कमरे में आयी ।
रानियो ने सुरसुन्दरी के लिए वस्त्र, कीमती गहने…. और कुछ दिव्य वस्तुए
तैयार की। सबसे छोटी रानी ने एक दिव्य पंखा सुरसुन्दरी के हाथों में थमाते हुए
कहा :
‘यह एक दिव्य पंखा है…. यदि बुखार से पीड़ित किसी व्यक्ति पर यह पंखा डाला
जाए तो उसका बुखार अवश्य उतर जाएगा। इस पंखे की यह विशेषता है । तुम्हारे लिए
उपयोगी बनेगा ।
‘सुरसुन्दरी उदास थी… चारो रानिया विदा लेने की उमन्ग में थी । रत्नजटी का
मन भी अस्वस्थ था ।
‘वापस यह सुरसुन्दरी विद्याभर दुनिया मे किस तरह आ सकेगी ? पर क्यो मेरा मन
इसे वापस बुलाना चाहता है ? नही ….नही मुझे अब इससे दूर ही रहना चाहिए ।इसका
अदभुत रूप कभी मेरे मन को चंचल बना दिया तो ?वह पर स्त्री है…..अमरकुमार की
व्याहता है….पतिव्रता महासती है ।’
रत्नजट्टी विचारो की आंधी में उलझने लगा। शाम को उसने खाना भी नही खाया । उसने
क्या ,किसी ने भोजन नही किया। रात को धर्मचर्चा भी नही हुई … चारो रानिया
सुरसुन्दरी के पास ही सो गई। कमरे में रत्नों के दीप मध्दिम जल रहे थे…
परंतु वहा पर सोई हुई सन्नारियों के दिल मे विरह की वेदना से उतपन्न अंधकार
फैला हुआ था ।
सुबह हुई ।
प्रभातिक कार्यो से सब निपटे ।
सुरसुन्दरी ने जिनमंदिर में जाकर परमात्मा के दर्शन पूजन स्तवन किये। सभी ने
साथ बैठकर दुग्धपान किया। चारो रानिया सुरसुन्दरी के चरणों मे गिरी ।
सुरसुन्दरी चारो से लिपट गई। सभी के दिल मे उफनती पीड़ा आँसू बनकर पिगलने लगी ।
‘वापस कभी पावन करना हमारे नगर को दीदी ….! रानिया फफक कर रो दी ।
सुरसुन्दरी महल के बाहर आयी । हजारो स्त्री पुरुष अपने राजा की प्रिय बहन को
विदा देने के लिए एकत्र हुए थे । सबने गीली आंखों और भर्राई आवाज के साथ
सुरसुन्दरी को विदा दी ।
सुरसुन्दरी विमान में बैठी! रत्नजटि ने अपने दिल को पत्थर बनाकर विमान को
अकाश में उपर उठाया, नगर पर एक दो- दिन प्रदक्षिणा दि और फिर बेनातट नगर की
दिशा में तीव्रगति से घुमा दिया।
आगे अगली पोस्ट मे…