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भीतर का श्रंगार – भाग 4

एक बात मेरी समझ मे नहीं आ रही हैं’… तीसरी स्त्री ने प्रश्न किया।
कौन सी बात ..? सुरसुन्दरी ने पूछा।
पति के विरह में स्त्री को बाहरी श्रंगार क्यो नही करना चाहिए ?
यह बात में तुम्हें समझाती हूं..
इस दुनिया मैं शीलवती नारी यदि कोई सबसे बड़ा दुश्मन है तो वह है उसका रूप !
इस दुनिया के अधिकांश पुरूष परस्त्री के रूप में मुग्ध होकर लुब्ध हो जाते
है.. मोहान्ध एवं कामान्ध पुरूष परस्त्री के शील को लूटने पर उतर आते है। अब
यदि सौन्दर्य वाली स्त्री पति की अनुपस्थिति में यदि श्रंगार सजाये तो उनके
शील के लिये बड़ा खतरा होगा या नहीं ?
मेरे सामने यदि ऐसा कोई लम्पट आ जाये तो मै मार-मार कर उसका भुरता बना दू !
तीसरी रानी बोल उठी !
वह तो बहन तुम्हारे पास विद्याशक्तिया है तुम विद्याधर स्त्रियां हो तुम ऐसे
लम्पट पुरूष का सामना कर सकती हो।
पर .. जिस स्त्री के पास विद्याशक्ति न हो इतनी शारीरिक ताकत न हो वह क्या
करेगी ? उसका क्या होगा ? यह तुम्हरी बात सही है दीदी ! सावधानी के तौर पर
परपुरुष की आँखों मे विकार पैदा करे वैसे श्रंगार नही सजाने चाहिए। रानियों ने
सुरसुन्दरी की बात को मान लिया।
अरे श्रंगार ना हो फिर भी केवल रूप पर भी लुब्ध होने वालों पागलो की कहा
कमी है इस दुनिया में ? तो फिर श्रंगार हो उस पर तो आपत्ति आते क्या देर लग
सकती है ? पति की गैरहाजरी का गैरलाभ कभी पति के मित्र कहलाने वाले लोग भी
उठाते है… पति का यदि कोई सेठ है … मालिक है तो उसकी निगाह भी पापी हो
सकती है। इसके बारे में मुझे एक कहानी याद आ रही है..
अरे कहो … कहो … सुनाओ वह कहानी… पर तुमने कहा से सुनी थी।
मेरी गुरुमाता साध्वी सुव्रता के पास। मेरा सारा धर्मिक अध्ययन उनके पास ही
हुआ।
अब तो वह कहानी सुनानी ही होगी।

आगे अगली पोस्ट मे…

भीतर का श्रंगार – भाग 3
September 1, 2017
भीतर का श्रंगार – भाग 5
September 1, 2017

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