‘जो हो सो अच्छे के लिये । ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने कहा है न ?’
‘कहा है । परन्तु अच्छा नहीं होता वहां तक … जो अधीरता उफनती है …. वो
जीवात्मा को न किये जाने वाले विचारों में डुबो देती है ।
यक्षदीप पर छोड़ने के बाद एक के बाद एक जो घटनाएं मेरे आस-पास पैदा हुई … वे
सब कितनी दुःखद थी ? कितनी सारी डरावनी थी ? उस समय मैं सोच ही नही सकती कि
‘जो भी हो सो अच्छे के लिये। ‘ मेरे पति ने मेरा त्याग करके मुझे दुःख के सागर
में धकेल दिया , वैसा ही मुझे लगता था ।’
‘चू’ कि , तूने हमेशा सुख की बजाय शील को बड़ा कीमती माना है । तू
आदर्शनिष्ट नारी है । किसी न किसी आदर्श को दिल में स्थापित करके उस मुताबिक
जीवन जीनेवालों को अनेक आपत्तियों का सामना करना ही पड़ता है । यदि तूने सुख से
ही प्यार किया होता तो तुझे ये सारे कष्ट उठाने पड़ते क्या ?
क्या धनंजय तुझे सुख देने के लिये तैयार नहीं था ?
क्या फानहान तुझे अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिये तैयार नहीं था ? किस
लिये तूने उन सबका तिरस्कार किया? तेरे मन में सुख की स्पुहा से भी कहीं
ज्यादा शील थर्म की रक्षा का विचार प्रबल था ।’
‘उस धर्म के प्रभाव से ही तो आज मैं इस दिव्य सुख को पा सकी हूं न ? वर्ना
मेरे जैसी सामान्य स्त्री के नसीब में नन्दीश्वर द्विप की यात्रा हो ही नहीं
सकती ?’
और मुझे किस धर्म के प्रताप से ऐसी शीलवंत बहन मिली ?’
‘तुम्हारे पिताजी के द्वारा तुम्हें मिले हुए ऊँची कक्षा के संस्कार ….
यह क्या छोट मोटा धर्म है ?’
प्यारी बहन!
पिता मुनिराज मात्र घोर तपस्वी ही नहीं है … वे विशिष्टज्ञानो महात्मा भी
है … कभी – कभार उनके दर्शन – वंदन करके , उनका धर्मोपदेश सुनकर अपनी
आत्मा-तृप्ति प्राप्त करता हूं।’
‘तुम सचमुच महान पुण्यशाली हो भाई । ऐसे शाश्वत तीर्थ की अनेक बार यात्रा
करने का पुण्य अवसर तुम्हें मिलता है … पिता मुनिवर के दर्शन – वंदन करने की
भी भावना तुम्हारे दिल में उठती है । ऐसे उत्तम पुरुषों के दर्शन मात्र से
जीवात्मा के पाप नष्ट हो जाते है । ऐसे निष्कारण – वत्सल महात्माओं के दो शब्द
भी मनुष्य की ज्ञानहष्टि को खोलने में सक्षम बन जाते है ।’
‘तो अब अपन उन महात्मा के चरणों में चलें ?’
‘हां… उनके दर्शन-वंदन करके पावन बनें ।’
दोनों विमान में अपने अपने स्थान पर आरूढ़ हो गये । विमान उड़ा । एक अत्यंत
रमणीय भू-भाग पर विमान को धीरे से उतारा रत्नजटी ने । सृष्टि का श्रेष्ठ
सौन्दर्य मानो इस जगह पर नृत्य कर रहा था।
जैसा सौन्दर्य छलक रहा था … उतनी ही पवित्रता उभर रही थी वहां के वातावरण
में । वहां की हवा की लहरों पर मानो वैराग्य के संदेश लिखे हुए आते थे ।
‘कितनी अदभुत जगह है यह ?’ सुरसुन्दरी बोल उठी:
‘इससे भी ज्यादा अदभुत है उन महामुनि के दर्शन ।’
रत्नजटी सुरसुन्दरी को लेकर , जिस पर्वत गुफा में मुनिराज थे वहां चला ।
सुरसुन्दरी के लिये सुख का अरुणोदय हो चूका था । उसका मन ख़ुशी से छलक उठा था ।
उसके प्राणों में प्रसन्नता के फूल खिल उठे थे । दुःखद भूतकाल का कारवां बहुत
पीछे छूट चूका था .. एक नया सवेरा उसको सुख का संदेश देने के लिये निखर – निखर
कर आ रहा था ।