यहां पर कुल बावन जिनमंदिर है।
‘अंजनगिरी’ पर चार जिनमंदिर है …
‘दधिमुख’ पर्वत पर सोलह जिंप्रासाद है जबकि ‘रतिकर’ पर्वत पर बतीस जिनालय है ।’
‘तुमने बिल्कुल सही संख्या बतायी …
अब मैं उन जिन – मंदिरों की लंबाई ऊँचाई-चौड़ाई बता दूं ?’
‘बोल।’
‘जिनमंदिर सौ योजन लम्बे है … पच्चास योजन चौड़े है … एवं बहतर योजन ऊँचे
है ।’
‘एकदम सच । बहन … तेरा श्रुतज्ञान वास्तविक है । अब अपन विमान में ही उन
पर्वतों पर चलें । पहले चल , तुझे अंजनगिरी पर ले चलू।’
दोनों बैठ गये विमान में । कुछ ही देर में अंजनगिरी। पर पहुँच गये ।
अंजनगिरी पर के अत्यंत आलीशान व मनोहारी जिनमंदिर देखकर सुरसुन्दरी का मनमयूर
नाचने लगा ।
विधिपूर्वक उसने जिनमंदिर में प्रवेश किया … शाश्वत जिनप्रतिमा के दर्शन
किये … उसकी आंखें हर्ष के आंसू से छलक उठी… अनिमेष आंखों से वह जिनेश्वर
भगवंत को निहारती रही ।
मधुर, अर्थगंभीर एवं भावसभर शब्दों में उसने स्तवना प्रारम्भ की ।
विस्वाधार । जिणेसरु । निर्भय । परमानन्द ।
रूपातीत । रसादतीत । वर्णतित । जिणंद ।
स्पर्श-त्रियातीतं नमो । संगविवर्जित सर्व ।
निरहंकार – मलक्षय । तु , सादिनान्त । गतगर्व ।
क्रमाष्टक-दल पंक्तिभित-वीर्यानन्त । पसत्थ ।
अकलामल । निकलंक । तात । नोमी प्रलब्धमहत्थ।
सुरसुन्दरी ने विधिवत भावपूजा की । चारों जिनमंदिरों में जाकर उसने दर्शन
से अपनी आंखों की प्यास बुझायी । स्तवना करके अपनी जिदा को धन्य बनाया ।
वहां से विमान में बैठकर दधिमुख पर्वत पर जाकर सोलह जिनमंदिरों की यात्रा
की । सुरसुन्दरी का हर्ष …
उल्लास , आनन्द पल-पल उफ़न रहा था दिल के सागर में । रतिकर पर्वत पर के बतीस
जिनमंदिरों की यात्रा की।
सुरसुन्दरी कुतार्थता से छलाछल हुई जा रही थी । विमान के निकट आकर उसने भरी
भरी आवाज में कहा:
‘आज मैं उनका आभार व उपकार मान रही हूं , भैया।’
‘उनका यानी किसका ?’
‘जो यक्षदीप पर मेरा त्याग करके चले गये…. उनका?’
‘ओह….अमरकुमार का?’
‘हां… उन्हीं का । वे जो यदि मेरा त्याग न कर गये होते तो तुम कहां से
मिलते ? और यदि तुम नहीं मिलते तो नन्दीश्वर द्विप की यात्रा का सदभाग्य ….
इतनी महान यात्रा करने का परम सौभाग्य मुझे मिलने वाला कहां था ?’
‘बहन । ‘जो हो सो अच्छे के लिये । ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने कहा है न ?’
‘कहा है । परन्तु
आगे अगली पोस्ट मे…