‘वो तो है ही … कालोदधि सागर तो आठ लाख योजन का है न ?’
‘तुझे तो द्विप समुद्र की लम्बाई-चौड़ाई भी याद है … कमाल है ।’
‘मैंने अपने पिता के घर पर यह सारा अध्ययन किया हुआ है न ?’
‘इधर देख बहन , अपन अब ‘धातकी खंड’ के ऊपर से उड़े जा रहे है ।’
‘यह भी जम्बूदीप के जैसा ही मनुष्य क्षेत्र है … पर यहां की दुनिया तो
निराली है …।’
विमान तीव्र वेग से धातकी खंड को पार कर गया और कालोदधि सागर पर उड़ान भरने
लगा । सुरसुन्दरी तो जैसे अपने सारे दुःख भूल गई थी … उसके मुंह पर का विषाद
पिघल कर वह गया था । जैसे ही विमान कालोदधि को पार करके ‘पुष्करवर द्विप’ के
आकाश मार्ग में प्रविष्ट हुआ कि सुरसुन्दरी बोल उठी ‘यह है ‘पुष्करवर द्विप’ ।
इसके आधे हिस्से में ही मानव सृष्टि है … आधे में नहीं । बराबर न ?’ उसने
रत्नजटी के सामने देखा ।
‘सही बात है तेरी … अब अपन मनुष्य क्षेत्र के बाहरी इलाके पर से उड़ान
भरेंगे ।’
पुष्करवर द्विप पर से विमान ने पुष्करवर समुद्र में प्रवेश किया । रत्नजटी
ने सुरसुन्दरी से पूछा :
‘बहन मैं एक विवेक तो चूक ही गया ।’
‘वह क्या ?’
‘तुझे भोजन के बारे में तो पूछा ही नहीं ?’
‘मुझे भूख – प्यास सताती ही नहीं । इस यात्रा में खाना पीना याद ही नहीं आने
का । कितनी अदभुत यात्रा हो रही है अपनी । ओह , देखो तो सही , अपन अब वारुणी –
वर द्विप पर आ पहुँचे ।’
‘हां…. यह वारुणीवर द्विप ही है … यहां मानवसृष्टि नहीं है ।’
‘अब तो किसी भी द्विप पर मानवसृष्टि नहीं होगी । मानवसुष्टि तो ढाई द्विप
में ही होती है ।’
‘वाह। क्या सतेज स्मृति है तेरी । पर यह सब तूने पढ़ा किसके पास ?’ रत्नजटी
ने पूछा ।
‘मेरी उपकारिणी साध्वी माता के पास । उनका नाम है सुव्रता ।’
‘देख नीचे जरा । यह वारुणीवर समुद्र है … इस समुद्र के पानी को जो पीता
है … उसे नशा चढ़ता है ।’
सुरसुन्दरी उस शांत महासागर को निहारती ही रही , जवार न भाटा… न किसी
तरह का समुद्री तूफान । काश , मेरी जिंदगी भी ऐसी होती तो ? नहीं …. फिर यह
सब देखने को नहीं मिलता । ‘अब जो आयेगा वह है क्षीरवर द्विप और इसके बाद
क्षीरवर समुद्र ।’
‘हां…. क्षीरोदधि समुद्र का पानी तो देवलोक के देव तीर्थंकर परमात्मा के
जन्माभिषेक के वक्त ले आते है । यह पानी यानी नीरा दूध ।’
‘हां… इस समुद्र के पानी का रंग दूध जैसा ही सफेद होता है … इसलिये तो
इसका नाम क्षीरोदधि है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…