‘कह बहन । मेरी शक्ति व सामथ्र्य की मर्यादा में जो भी तेरा काम होगा मैं
जरूर करूंगा ।’
‘तुम जिस नंदीश्वर द्विप की यात्रा कर आये … उस नंदीशवर द्विप की
यात्रा मुझे नहीं करवा सकते ?’
‘क्यों नहीं ? जरूर … जरूर । करवाऊंगा मेरी बहन। नंदीस्वर द्विप तो देव
व विद्याधरों का महान शास्वत तीर्थ है …। पर है बहुत दूर । फिर भी मेरा यह
विमान हवा की गति का है। अपन कही भी रुके बगैर… सीधे चलेंगे। कहीं उतरना
नहीं पड़ेगा बीच में।’
‘पर रास्ते में आने वाले द्विप-समुद्र उन सबकी पहचान तो मुझे करवानी ही होगी।
‘ सुरसुन्दरी हर्ष से पुलकित हो उठी। उसने साध्वीजी के पास ‘मध्यलोक’ का
अध्ययन किया था। नंदीस्वर द्विप के बारे में ढेर सारी जानकारी उसके पास थी। आज
यकायक … वह उस अदभुत द्विप की यात्रा करने के लिये सौभाग्यशाली हो गयी ।
मानव की … सामान्य मानव की औकात नहीं उस द्विप पर जाने की। विशिष्ट
विधाशक्ति वाले मानव ही वहां जा सकते थे। रत्नजटी विद्याधर राजा था। उसके
पास विशिष्ट कक्षा को विधाशक्तियां थी ।
रत्नजटी ने विमान को गतिशील बनाया। अल्प ही क्षणों में विमान आकाश में ऊपर
चढ़ गया व् इशान-विदिशा की ओर तीव्र गति से आगे बढ़ा ।
‘बहन, अभी अपन जंबुदीप में से गुजर रहे है । अभी तुझे मेरुपर्वत दिखायी
देगा । बिल्कुल निरे सोने का बना हुआ है। तू देखकर ठगी ठगी रह जायेगी । अपना
विमान मेरुपर्वत के समीप से ही गुजरेगा ।’
सुरसुन्दरी ने सोने का मेरुपर्वत देखा … वह बोल उठी, ‘अदभुत’! अदभुत!
कितना ऊंचा… आंख ठहरती ही नही। नहीं , भाई नहीं … नज़र जायेगी भी कैसे ?
पुरे लाख योजन की उचाई है उस की ।’
‘अब कुछ ही देर में अपना विमान लवंसमुद्र के ऊपर से उड़ेगा ।’
‘हां… दो लाख योजन विस्तृत लवणसमुद्र है न ? सारे जम्बुद्विप के चौतरफ
घेरा किये हुए फैला है ।’
विमान ‘लवण समुद्र’ पर से गुजर रहा था । नीचे पानी ही पानी …।
सुरसुन्दरी उस अपार अनन्त जलराशि को अपलक निहारती ही रही । इतने में रत्नजटी
ने कहा :
‘अरे … इस समुद्र में क्या खो गयी ? इस से भी बड़े बड़े , लम्बे-चौड़े…
समुद्र अपन को पार करने है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…