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अाखिर ‘भाई’ मिल गया – भाग 4

देवी ने सुरसुन्दरी के सर पर हाथ रखा।
सुरसुन्दरी तो पंचपरमेष्ठि के ध्यान में लीन थी | सर पर देवी का दिव्य कर-स्पर्श होते ही उसने आँखें खोली….शासनदेवी को हाजराहजूर देखकर वो हर्ष से विभोर हो उठी | उसने मस्तक झुका कर प्रणाम किया और देवी अदृश्य हो गई |
सुरसुंदरी ने पल्लीपति को देखा | वह बेचारा डर के मारे आंधी मे पत्ते की भाँति कांप रहा था | उसके मुँह में से अब भी खून बह रहा था….खङे रहने की भी उसकी ताकत नहीं थी….वह बङी मुश्किल से बोल पाया :
‘मां….माफ करो मुझे ! मेरी बङी गलती हुई….मैं तुम्हें नहीं पहचान पाया | तुम तो साक्षात जगदम्बे हो ! तुम्हारी करुणा से ही मैं जीवित रह सका हूँ | वर्ना मैं तो मर ही जाता….जाओ मां ! तुम्हें जहां जाना हो….तुम तो महासती हो….’
रात का तीसरा प्रहर पूरा हो चुका था | चौथा प्रहर प्रारंभ हो चुका था | चाँद भी ऊग गया था, आकाश में | सुरसुंदरी एक पल की भी देर किये बगैर पल्ली में से निकल गई….और जंगल के रास्ते आगे बढ गई |
उसके शरीर मे स्फुर्ति आ गई थी | उसकी कल्पना में से शासनदेवी की आकृति हट नहीं रही थी | श्री नवकार महामंत्र के अचिन्त्य प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव करके वह हर्षविभोर हुई जा रही थी |
और वह पल्लीपति सरदार ! जब उसके साथी लुटेरे वापस पल्ली में लौटे तो उन पर आगबबूला होता हुआ बरस पङा |
‘दुष्टों ! तुम किसे ले आये थे यहाँ ? जानते हो ?’

आगे अगली पोस्ट मे…

अाखिर ‘भाई’ मिल गया – भाग 3
June 30, 2017
अाखिर ‘भाई’ मिल गया – भाग 5
June 30, 2017

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