‘तेरा मुँह बंद कर । और मेरे से दूर खडे रहना यदि ख़ैरियत चाहता हो तो ।’ सुरसुंदरी ने घुड़कते हुए कहा ।
‘तुझे मालूम है री छोकरी ,तू किसके साथ बात कर रही है….?’
‘हां…..हां…..भलीभांति जानती हूं मै चोर लूटेरों के सरदार का साथ बात कर रही हूँ……’
‘तुझे मेरी बात मानना होगा…..|’
‘नही मानूंगी तो ?’
‘इसका परिणाम बुरा होगा …..’
‘परिणाम की परवाह मै नही करती ।’
‘तब मुझे जबरदस्ती तेरे पर काबू पाना होगा ….| मै तेरे रूप को कुचल डालुंगा अपने हाथो …..’ और पल्लीपति सुरसुन्दरी को अपने बाहु में भरने के लिये आगे बढ़ा…. पर सुरसुन्दरी चार छह कदम पीछे हट गई ….|
‘तू मेरे शील को नही लूट सकता ,पागल…… जहां खड़ा है वही रहना……..वर्ना……’
‘ओहो…..मेंढकी को भी जुकाम होने लगा…. फिर क्या कर लेगी तू मेरा ?’
‘मैं क्या करूगी यह जानने की तुझे बेसब्री है ?’
‘हो…. हो…. हो…. यहां पर राजा मै हूं….मै जो चाहूँ वो यंहा पर होगा …..| सीधे ढंग से मेरे वश मे हो जा …. नहीं तोमुझे हार कर इस सूंदर मुखड़े को खून से नहलाना होगा….हूं हूं……समझती क्या हैं छोकरी ! मै तेरा सर उतारकर रख दूँगा घड़ पर से !’
‘ऐसा डर किसी और को बताना…….कायर ! यदि ताकत हो तो उठा तलवार और कर प्रहार !’
‘अच्छा ? इतनी हिम्मत तेरी ?’
‘अरे,…..बक बक किये बगैर हथियार उठाकर कुछ कर दिखा , ओ डरपोक !’
पल्लीपति का ग़ुस्सा आपे से बाहर हो गया…..! वह तलवार खीचकर सुरसुन्दरी की तरफ लपका ।
सुरसुन्दरी, आस- पास के वातावरण से अलग हटकर श्री नवकार महामंत्र के ध्यान मे लीन हो गई….! उसके इर्दगिर्द तीव्र प्रकाश का एक वर्तूल खड़ा हो गया ! कुछ पल बीते न बीते इतने मे तो एक दिव्य आकृति प्रकट हुई…….
पल्लीपति तो हक्का – बक्का रहा गया । उसके हाथ में ऊपर उठी तलवार ज्यों की त्यों लटक गयी । दिव्य आकृती बढ़ी…… पल्लपति के सीन पर कङा प्रहार किया । और एक दिव्य आवाज़ उभरी ;
‘दूष्ट ! नराधम ! इस महासती पर तू प्रहार करना चाहता है…..? तरी जान ले लूंगी ।’
पल्लीपति जमीन पर लुढक गया …. उसकी तलवार दूर उछल गई…. उसके मुँह से खून आने लगा…. पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया….. उसकी आँखे फ़टी फटी रह गई…….भय…..त्रास व पीड़ा से वो चीख उठा मुझे बचाआे….. मै तुम्हे मां मानता हूँ….. मेरी मां……मुझे बचाओ ….!
आगे अगली पोस्ट मे….