सुरसुंदरी की पशोपेश दूर हुई । वह मदनसेना के निकट जाकर बैठी ।
‘देख, बराबर ध्यान से सुन । अभी यहाँ महाराजा आयेंगे । इस वक्त तो मैं यहाँ पर हूं तो तू निश्चित है । महाराजा को मैं अपने खंड में ले जाऊँगी । वे दूसरा प्रहर पूरा होने के बाद अपने शयनखंड मे चले जायेंगे । इसके बाद मैं तेरे पास आऊंगी ।
मैं तेरे कमरे के दरवाजे पर तीन बार दस्तक दूंगी । तू धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर सरक आना । चुपचाप मेरे पीछे पीछे चली आना । मैं तूझे इस महल के गुप्त दरवाजे में से बाहर निकाल दूंगी । फिर किले के छुपे दरवाजे से बाहर निकलवा दूंगी । बस, फिर तू जंगलो मे खो जाना । तेरा नवकार मंत्र तेरी रक्षा करेगा।’
सुरसुंदरी तो सुनकर हर्ष से भर आयी |
इतने में राजा मकरध्वज आ गया |
‘आइये स्वामीनाथ |’ मदनसेना ने स्वागत किया ।
‘क्यो सुरसुंदरी कुशल तो हो न ?’
‘आपकी कृपादृष्टि हो फिर मुझे कुशलता ही होगी न ?’
सुरसुंदरी ने आंखें मदनसेना की ओर रखकर जवाब दिया ।
‘स्वामिन, अपकी इच्छा सफल होगी ।’
‘क्या तूने सुरसुंदरी से बात कर ली ?’
‘हां, कर ली बात तो । पर आपको तीन दिन जरा धैर्य रखना होगा ।’
‘अरे, तीन दिन क्या तेरह दिन भी धैर्य रख सकता हूं सुन्दरी के लिये ।’
‘बस, तो फिर बात पक्की ! अब अाप मेरे शयनगृह मे पधारे । सुरसुंदरी को अभी आराम की आवश्यकता है ।’
मकरध्वज को लेकर मदनसेना अपने शयनकक्ष मे चली गयी । सुरसुंदरी ने अपने कमरे के दरवाजे बंद किये ।
नई आफत मे से छुटकारा पाने का आनंद सुरसुंदरी को अश्वस्त कर रहा था । वह पलंग मे लेटी….पर
‘यहां से वापस जाऊँगी कहाँ ? फिर वो ही डरावने जंगल….। हाय….कितनी बदकिस्मती है मेरी….? न जाने कब यह सब दूर होगा ?’
अस्वसथ मन को पंचपरमेष्ठि के ध्यान मे लगाती हुई वह नींद की गोद मे सरक गयी ।