शासन देवो का स्मरण करके सुरसुन्दरी बोली :
हें पंचपरमेष्ठी भगवंत ! में आपकी साक्षी से व मेरी स्वयं की आत्मसाक्षी से कहती हु की मेरे मन में किसी भी जीवात्मा के प्रति न तो गुस्सा है न नाराजगी है | मै सभी जिवो से क्षमायाचना करती हूँ |सभी मुझे क्षमा करे | मै अपने शारीर पर से ममत्व हटा रही हूँ | मेने यदि इस जीवन में कुछ धर्म का पालन किया हो तो मुझे जनम जनम तक परमात्मा जिनेश्वर देव का शासन मिले | मुझे उन्ही की शरण है | मेरा सब कुछ धर्म आरपित है |’
और सुरसुन्दरी ने छलाग लगा दी सरोवर में | एक ‘छप…की आवाज आयी और सुरसुन्दरी सरोवर के पानी में डूब गयी |
एक प्रहर बीत गया….सरिता लीलावती के पास पहुंची ‘देवी, सुरसुंदरी अभी तक वेदराज के घरमे आयी नहीं है…तो क्या में जाकर उसे लिवा लाऊ ?’
क्या आभी तक नहीं लोटी ?इतनी देर क्यों हुई उसे ?’
‘देवी हम गए तब वेदराज तो नित्यकर्म से निपटे भी नहीं थे, उनकी उम्र भी तो कितनी है !’
‘तू जल्दी जा…और सुरसुन्दरी को ले आ |’
सरिता वेदराज के वहाँ पहुची |
वेदराज से पूछा: ‘वेदराज, सुंदरी कहा हें ?’
‘वो तो कभी की यहाँ से चली गई है |’
‘पर अभी वह हवेली पर पहुची नहीं है !’
‘क्या पता कहा गयी होगी ? यहाँ से तो दवाई लेकर चली गयी !’
सरिता दोड़ती हुई लीलावती के पास पहुची…..उसके चहरे पर हवाईयां उड़ रही थी | चिंता एवं विहलता कि रेखाए उभर रही थी |
देवी सुंदरी तो वहा नहीं है…वेदराज ने कहा की वो तो दवाई लेकर वहा से कभी की निकल गयी |’
‘फिर वो गयी कहा ? सरिता !’ नगरे में उसकी तलाश कर |’ लीलावती गुस्से व शंका से भड़क उठी थी | ‘सरिता, तुझे तो मालूम है ना की मेने उसे सवा लाख दे कर ख़रीदा था…वह इस तरह आँखों में धुल झोक कर चली जाय….यह तो….|’
‘देवी, भागने की तो उसमे हिम्मत दिख ही नहीं रही थी | किसी गरीब गाय सी लग रही थी…?’
‘अब बाते बताना छोड़….जा कर तलाश कर |’
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