सुरसुन्दरी ने इधर उधर की जमीन को साफ किया, और विश्राम करने के लिए लेट गयी | हवा शीत थी |
पेडो की ठंडी छाव थी| पक्षिओ का कुंजन गूंज रहा था | झिन्गुरो की आवाज आ रही थी | फिर भी सुरसुंदरी आँखों में नींद कहाँ ? उसके मन में डर था….निराशा थी….वह व्यथा से आतंकित हुई जा रही थी |
‘में जाऊगी कहाँ ? जंगल में चोर ~डाकू मेरे पर हमला करेगे तो ?किसी गाँव~शहर में जाऊ तो…वहा फिर कोई बदमासो से पाला पड जाय…! मेरा रूप ही मेरे शील के लिये दुश्मन बन बेठा है | मेरे जवानी….मेरा लावण्य ही मेरे शील के लिये खतरा खड़ा कर रहा है | नहीं…नहीं, अब मुझे जीना ही नहीं है | जीने का मतलब भी क्या ? मै इस सरोवर में कूद कर अपने प्राण दे दू |’
वह खड़ी हुई…उसके दिल पर निराशा का बोझ अब असहा हुआ जा रहा था | वह सरोवर की पाल पर चड गयी | सरोवर पानी से भरा पुरा था | बड़े बड़े मगरमच्छ उस में मुह बाये घूम रहे थे | सुरसुन्दरी ने आँखे मुंदली | दो हाथ जोड़ा कर श्री नवकार महा मंत्र का समरण किया | शासन देवो का स्मरण करके वो बोली :
‘हें शासन देवता ! मै चंपानगरी के श्रेष्ठिपुत्र अमरकुमार की पत्नी सुरसुन्दरी हुँ | मेरे पति मेरा त्याग करके चले गये है | आज दिन तक मेने मन~वचन~काया से अपने शील का जतन किया है | अमरकुमार के आलावा अन्य किसी पुरुष को मेने अपने दिल में स्थान नहीं दिया है | शायद अमरकुमार भुले भटके मेरे खोज में यहाँ चले आये तो उन्हें कहना की तुम्हारी पत्नी ने इस सरोवर में कूद कर आत्महत्या की है |
आगे अगली पोस्ट मे…