सुरसुन्दरी वैधराज के चरणों में प्रणाम करके त्वरा से उस मकान से निकल कर नगर के दरवाजे के बाहर आयी और फिर नवकार का स्मरण करके जंगल की और दोड़ने लगी | मन पर चलने के पश्चात् वह पगडंडी पर दोड़ने लगी |
वह जानती थी सवा लाख रूपये देकर वेश्या ने उसे ख़रीदा था | वह गुम हो जाय….फरार हो जाय तो उसे खोजने के लिए लीलावती धरती ~ आकाश सर पर उठाये बिना नहीं रहेगी | राजा के सैनिक भी चारो तरफ उसे खोजने के लिए निकल पड़ेगे |
सुरसुन्दरी न दिशा देखती है…. न कांटो ~ कंकर का खयाल कर रही है , वह तो बेतहाशा दोड़ रही है | दोड़ते – दोड़ते थक जाती है तो धीरे ~ धीरे चलती है | चोतरफ देखती है | दूर दूर नजर फेकती है | उसके मन में भरोसा हो गया की कोई पीछा नहीं कर रहा है | वह आशवस्त हुई |
दिन के तीन प्रहर बीत गये | सूरज अस्ताचल की ओर झुकने लगा था | सुरसुन्दरी एक बड़े सरोवर के किनारे के पास जा पहुची थी |
सरोवर के किनारे पर वर्क्षो का झुरमुट था | सुरसुन्दरी उस झुरमुट में जाकर बैठी | वह थकान से चूर हुई जा रही थी | उसका पूरा शारीर पीड़ा से तड़क रहा था | दोनों पैरो की एडियो व तलवो से खून रिस रहा था |
सुरसुन्दरी को सरिता का विचार सताने लगा | ‘क्या हुआ होगा उस बिचारी का ? क्या लिलावाती ने उस पर ,मुझे भागने का इल्जाम तो नहीं मढ़ा होगा न ? उससे सत्य उगलवाने के लिए फटकारा तो नहीं होगा न ? वेश्या के घर में नौकरी करी है , फिर भी उसके दिल में कितनी मनवता भरी हुई है , मेरे लिए उसने उसने कितनी हिम्मत दिखाई ? मेने उसे कुछ दिया भी नहीं | उफ़…मेरे पास है भी क्या उसे देने के लिए ? मै कितनी अभागीन ! ओ मेरे परमात्मा….उसकी रक्षा करना….मेरे नवकार , उसे आपत्ति से बचना |’ सुरसुंदरी की आखो में से गरम~गरम आसू टपकने लगे |
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