लीलावती ने दुलार से सुरसुन्दरी का स्वागत किया और पूछा :
सुन्दरी थकान तो उतर रही है न ? कोई तकलीफ तो नहीं है न ?
सब कुछ ठीक है..पर एक जरा तकलीफ है !
क्या है ? बोल न ?
मुझे मेरा शरीर किसी अच्छे वैध को दिखाना होगा । शायद में गुप्तरोग की शिकार हो गयी हु.. यह रोग दूर हो जाये, फिर में तुम्हारी आज्ञा का पालन कर पाऊँगी।
‘इसमे कौनसी बड़ी बात है ? अच्छा हुआ आज तूने बता दिया। मै वैध को कहला देती हूं। वो सुबह ही मिलता हैं। कल सुबह मै तुझे वैध के वहां भिजवा दूँगी। और कुछ चाहिए-करे तो कहना।
‘नही बस औषध उपचार हो जाय तो फिर शान्ति रहेगी।
सुरसुन्दरी अपने आवास मैं चली आयी। उसे अपनी योजना सफल होते दिखी पर ‘मै नगर छोड़कर भाग तो जाऊगी पर जाऊँगी कहा ? जंगल में कोई नराधम मिल गया तो ?
दुःख के दिन में विचार भी दुःख के आते रहते है।
सुरसुन्दरी गुमसुम हो गयीं। उसने श्री नमस्कार महामंत्र का जाप चालू किया। मन को एकाग्र बनाने की कोशिश करने लगी। धीरे धीरे जाप मैं लीन हो गयी।
सांझ के भोजन का समय हो चुका था।
सरिता का स्वर गुंजा: ‘क्या में अंदर आ सकती हूं ?
जवाब की प्रतीक्षा किये बगैर वह अंदर चली आयी।
भोजन की थाली पाटे पर जमाकर बोली :
‘आका (लीलावती) की आज्ञा के मुताबिक कल बड़े तड़के ही मुझे तुम्हारे साथ वैधराज के घर पर जाने का है।
मै तैयार रहूँगी !
अभी तो भोजन के लिए तैयार हो जाओ
हा, पेट भर कर खाना… क्या पता कल कहा जाओगी ? क्या खाने को मिले न मिले ! और फिर तुम यह नही खाती… वो नहीं खाती.. कितना कष्ट दे रही हो अपने आपको !
‘ सरि ! ज़िंदगी मे आधी के गले गलबहि डालकर जीना भी पड़ता है न इंसान को ? और मेरी किस्मत में तो जीते जी मर जाना लिखा कर लायी हु .. न जाने कितनी मोते मेरा इंतजार कर रही है।
‘ऐसा मत कहो ! ये दिन भी गुजर जाएंगे देवी ! तुम्हारी रक्षा तो मन्त्र के देवता जो कर रहे है !
अच्छा अब भोजन को ठंडा करने की आवश्यकता नही है।