मेरे अमर! अब शायद इस जनम में में तुझ से कभी नहीं मिल पाऊँगी! केवल तिन दिन बचे है… मेरे पास।यदि मेरा महामंत्र मुझे और कोई रास्ता सुझायेगा मेरी शीलरक्षा के लिये… तो मै आत्मघात का रास्ता नही लुगी…वर्ना…
अरे! आज मेने अभी तक नवकार का जप क्यों नहीं किया? बस … अब यहाँ अन्य तो कुछ कार्य है नही…
तिन दिन में हो सके उतना जप कर लू।
सुरसुन्दरी ने पद्मासन में बैठकर महामंत्र का जाप प्रारम्भ किया धीरे धीरे जाप में से वह ध्यान की दुनिया में डूब गयी ।पंच-परमेष्ठी के ध्यान से वह बिल्कुल सहजता से तल्लीन हो सकती थी ।
दिन का दूसरा प्रहर बित चूका था भोजन का समय हुआ दरवाजे पर दस्तक हुई ।सुरसुन्दरी ने परिचारिका को भोजन का थाल हाथ में लिये खड़ी देखी । सुरसुन्दरी के सामने स्मित करते हुए उसने अन्दर प्रवेश किया ।भोजन का थाल पाट पर रखकर उसने सुरसुन्दरी के सामने देखा। मुझे भोजन नहीं नही करना है। यहाँ को कोई भी नई स्त्री आती है वह भोजन करने को इन्कार ही करती है। पर क्या भोजन नही मात्र करने से दुःख दूर हो जायेंगे ? दुःख को दूर करने के लिये तो भोजन जरूर करना चाहिए । भोजन करोगी तो शरीर स्वस्थ रहेगा तन तंदुरस्त रहा तो मन अपने आप दुरस्त रहेगा। कुछ सोच भी सकोगी कभी कभी जैसे मन की बीमारी शरीर को बीमार कर देती है। वैसे शरीर की बेचैनी मन को भी हताश बना डालती है।
सुरसुन्दरी एक परिचारिका के मुँह से इतनी गहरी बात सुनकर सोच में गिर गयीं यह सही बता रही है।
यहाँ से छुटने का भाग निकलने का उपाय सोचना चाहिये ।भूखा पेट कोई उपाय नहीं सोच पायेगा। उसने परिचारिका के सामने देख कर पूछ लिया
दुःख को दूर करने का उपाय तू मुझे बतलायेगी। पहले खाना खालो फिर बाते करना। सुरसुन्दरी ने भोजन कर लिया । परिचारिका सुरसुन्दरी को निहारती रही ।भोजन करने का उसका तरीका देखती रही … फिर धीरे फुसफुसायीं
क्या तुम किसी बड़े घराने की हो?
सुरसुन्दरी ने सर हिलाकर हामी भरी।
परिचलिका खाली थाली लेकर चली गयी। सुरसुन्दरी उसके कदमो की आहट को गिनती रही…