ससुरसुन्दरी : तो यह क्या वेश्या गृह है और तुम…?
लीलावती: इसमे चोकाने की कोई बात नहीं है…. पैसे वाले लोग इसे वेश्यागृह नहीं कहते है… वे इसे स्वर्ग कहते। यहाँ उने अप्सराये मिलती है ।अप्सराओ के साथ आन्नद प्रमोद के लिये वे यहाँ आते हे। मै उनसे हजारो रुपये लेती हुँ ।
सुरसुन्दरी की आँखे सजल हो उठी। उसका दिल दुःख की चटानो के निचे कसमसाने लगा। धरती पर स्थिर द्रष्टी रखते हुए उसने लीलावती से कहा
क्या तुम मेरी बात मानोगी
जरूर ।क्यों नहीं?
मै एक दुखी औरत हूँ।
यहाँ जो औरत आती हे वे सभी दुःखी ही होती है फिर बाद में दुःख भूल जाती है।
मै भी अपना दुःख भूलना चाहती हुँ।
यह तो अच्छी बात है ।
पर इसके लिए मुझे तिन दिन का समय चाहिए। तिन दिन तक में किसी भी आदमी का मुँह नहीं देखुगी ।
इसके बाद…?
तुम कहोगी वेसा करुँगी। क्योकि मै तो तुम्हारी त्रित्त दासी हु। तुम्हारी गुलाम हु।
यहाँ तू गुलाम नहीं रानी- महारानी बनकर रहेगी।बस मेरी एक बात माननी होगी तुझे ।जिस आदमी को मै तेरे पास भेजू….उसे बराबर खुश करने का।
ठीक है पर मुझे तिन दिनों का सम्पुर्ण विश्राम चाहिए..
मिल जायेगा।
चल मेरे साथ तुझे जहा रहना है वह कमरा तुझे मै दिखादु । कमरे को देखते ही तेरी थकान उतर जायेगी और पलंग में गिरते ही तेरे एक एक अंग में स्फूर्ति का नशा पैदा हो जायेगा ।
लीलावती ने सुरसुन्दरी को रहने के लिए एक सुन्दर सुशोभित कमरा दिया। कमरे में जमाई हुए व्यवस्था समझा दी और चली गई।
सुरसुन्दरी ने अविलम्ब कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। और जमीं पर गिर पड़ी….वह फफक फफक कर रोने लगी । दिल में दर्द का दरिया उफ़न ने लगा। आँखो में आसुओ का काफिला उभर ने लगा।
मेरा कितना दूर्भाग्य है। मेरे कैसे पाप कर्म उदय में आये ? जिससे में बचने और जिसे में बचाने के लीये दरीए में कूद गई… उसी स्थल में आज फंस गई ।यहाँ मै अपने शील को बचाउंगी भी कैसे। इस वेश्या ने मुझे सवा लाख रुपये में ख़रीदा है। इतना सारा रूपये देकर खरीदने के पश्यात वह मुझे चोडने से रही ।में चाहे जीतनी मन मनोवल करू पर वह मुझे नहीं जाने देगी।
आगे अगली पोस्ट मे…