‘यह व्यापारी भी मेरे लिए आपरिचित है…उसकी मुराद अच्छी नहीं लगती | उसकी आखो में हवस है….अलबत्ता,इसने मेरी सारसंभाल ली है | पर यह भी जवानी का आशक तो होगा ही | क्या ओरत की जवानी यानि पुरुषो की वासना तृप्त करने का भोजन मात्र है ? नही ! यह मुझे छुए उससे पहले तो में कूद गिरुगी, इस समुन्द्र में ! अब मुझे सागर का डर नहीं है….सागर ही मेरी अस्मत को बचायगा |’
अचानक उसने पीछे घूम कर देखा तो पाया की फानहान दरवाजे पर खड़ा उसकी तरफ तक रहा है| वह युवान था….सुन्दर था….छबीला था |
‘सुंदरी, यहाँ तुझे किसी तरह की दिकत तो नहीं है न ?,
‘नहीं !
आप मेरी इतनी देख भाल जो कर रहे है….आसुविधा क्या होगी ? पर आप मुझे बतायेगे, आपन कहा जा रहे है ?’
‘सोवनकुल की ऐर !’
‘सिहलव्दीप यह से कितना दुर है ?’
‘सोवनकुल से भी काफी दूर है सिहल तो ! वहा जाने मेतो एक महिना लग ही जाये !’
‘आप सोवनकुल तक ही जायेगे |’
‘वेसे तो सोवन कुल तक ही | पर तेरी इच्छा होगी तो सिहल व्दीप भी चलेगे |पर सिहल व्दीप क्यों जाना है ? वहा तेरा कौन है ?’
‘मेरे पति वहा गये है….मुझे उनके पास जाना है |’
फानहान मोन रहा | सुरसुन्दरी के लावण्य को निहारता रहा | उसका मन बोल उठा :
‘मै तुझे नहीं जाने दुगा तेरे पति के पास ! मै ही तेरा पति बनूगा !अब तो तू मेरे अधीन है मै तुझे सरकने नही दुगा |’
‘आप यदी वहा तक नहीं आसकते तो फिर में दुसरे किसी जहाज में आपना इंतजाम कर लू गी | आप परेशान न हो |’
‘इसकी फ़िक्र तू मत करना | तू इसी जहाज में आनन्द से रहना |’
फानहान ने एक परिचारिका को सुरसुन्दरी की सेवा में छोड़ दिया एवं खुद आपने खंड में चला गया |सुरसुन्दरी को केसे मना लेना…इसके उपायों में खो गया |
आगे अगली पोस्ट मे…