धनंजय ने एकदम सुरसुन्दरी का हाथ पकड लिया | सुरसुन्दरी ने झटका देकर अपना हाथ छुडा लिया | और दूर हट गयी | उसका मन गुस्से से बोखला उठा था , पर वो सामना करने के बजाय समझदारी से काम लेना चाहती थी । दिल में लावा उफन रहा था पर उसने आवाज में नरमी लाकर कहा :
‘क्या तुम मुझे सोचने का समय भी नही दोगे ?’
‘नही, अब तो तेरे बगैर एक पल भी जिना दुश्वार है ।’
‘तो तो में जीभ कुचलकर मर जाऊगी या इस दरिये में कूद जाऊँगी ।’
‘नही – नही ,ऐसा दु:साहस मत करना सुंदरी ! तूझे सोचना हो तो सोच ले । शाम तक निर्णय कर ले ।बस’ फिर तू इस अलग कमरे में नही रहेगी । मेरे कमरे में तेरा स्थान होगा। आज की रात मेरे लिए स्वर्ग की रात होगी ।’
धनंजय कमरा छोड़ कर चला गया । सुरसुन्दरी के मुख में से शब्द बिखरने लगे : दुष्ट….बेशरम….तेरी आज की रात स्वर्गीय सुख तो क्या पर नरक के दुख में ना गुजरे तो….मुझे याद करना ।’
सुरसुन्दरी ने तुरंत उठाकर दरवाजा बंद किया अपने कमरे का, ओर पलग में टूट गिरी । पेड़ से कटी डाली की तरह ! वो फफक फफक कर रो दी ।
‘अमर ने विश्वास तोड़ा….इस व्यापारी ने धोका दिया । मेरे कैसे पापकर्म उदय में आये है ?इससे तो अच्छा था में यक्ष व्दीप पर ही रह जाती । कम से कम ,मेरे शील का जतन तो होता । अमर को मेरी गरज होती तो स्वयं आता मुझे खोजने के लिये वहा पर ! मै ही उसके मोह में मूढ़ हुई जा रही हु । उसके पास जाने के पागल पन में इस जहाज में चढ़ बैठी । न कुछ सोचा….न कुछ समझा !
आगे अगली पोस्ट मे…