सुरसुन्दरी ने पहले उपवन में अपना थोड़े दिन का निवास स्थान बना दिया । यक्षराज ने एक छोटी सी पर्णकुटिर बना दी थी । सुरसुन्दरी अपना अधिकांश समय श्री नवकार मंत्र के जाप में व अरिहंत परमात्मा के ध्यान में ही बीताती थी ।
सुबह सुबह में नित्यत्रय से निपट कर वह समुद्र के किनारे पर चली जाती और दूर दूर …. समुद्र की सतह पर निगाह डालती । वह किसी ऐसे यात्री जहाज की प्रतीक्षा कर रही थी जो जहाज बेनातट नगर की ओर जा रहा हो । एकाध प्रहर समुद्र के किनारे बिताकर वह वापस उपवन में लौट आती … और चरों उपवनों में परिभ्रमण करती । दूसरा प्रहर पूरा होने के बाद वह फलाहार करती थी । तीसरे प्रहर में वह चौथे उपवन में पहुँच जाती व जलाशय में से हिरन प्रकट करके उनके साथ खेलती – खिलाती रहती । चौथे प्रहर में पुनः वो पहले उपवन में आकर , अपनी पर्णकुटिर में आसन लगाकर श्री नमस्कार महामंत्र का जाप करती थी । सूर्यास्त के पूर्व फलाहार करके वह पुनः समुद्रतट पर घूमने के लिये चली जाती ।
यक्षराज को उस पर कुपा दष्टि थी । उसे किसी बात का डर नहीं था । उसके दिल में शीलधर्म था और उसके होठों पर श्री नवकार महामंत्र था ।
एक ही इच्छा थी – तमन्ना थी कि बेनातट पर पहुँचकर अमरकुमार से मिलना। उसके मन को अब प्रतीत हो चुकी थी कि मेरा शीलधर्म को आँच नहीं आने देगा ।
यक्षद्विप पर एक सप्ताह बीत चुका था । आठवाँ दिन था । नित्यकर्म के मुताबिक सुरसुन्दरी सुबह में समुद्र के किनारे पर पहुँची। वातावरण आह्लादक था । समुद्र भी शांत था। सुरसुन्दरी स्वच्छ भूमि खोजकर बैठ गयी , परमात्मा के ध्यान में अपने मन को जोड़ दिया ।
इतने में दूर दूर …. दरिये की ओर से आदमियों का शोर सुनाइ देने लगा। सुरसुन्दरी ने अपना ध्यान पूर्ण किया और खड़ी हो गयी ।
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