सुरसुन्दरी अमरकुमार से
‘यानी क्या आप मुझे यही छोड़कर जाने का इरादा रख़ते हो?
अमरकुमार – हाँ।
‘नही’ यह नही हो सकता ! मै तो आपके साथ ही चलूंगी! जहाँ व्रक्ष वहाँ उसकी छाया ! मै तो आपकी छाया बनकर जी रही हूं !
‘विदेश यात्रा तो काफी मुश्किलों से भरी होती है। कई तरह की प्रतिकूलता आती है यात्रा में तो ! वहा तुझे बिल्कुल नही जमेगा ! और फिर मेरे सर पर तेरी चिंता….
‘में मेरी चिंता आपको नही करने दूँगी । आपकी सारी चिंता में करूंगी! आप मेरी तरफ से निश्चित रहियेगा।
निश्चित रहा ही कैसे जा सकता है ? तु साथ मे हों तो फिर मेरा मन तो तेरे में ही डूबा रहे..व्यापार धन्दा करने का सूजे ही नही।
‘आप बहाने मत बनाइये,मेरी एक बात सुनिये… अपन को पंडित जी ने अध्ययन के दौरान नीतिशास्त्र की ढेर सारी बातें सिखायी थी, याद है ना ? उन्होंने एक बार कहा था कि आदमी को छ: बातो को सुनी नही छोड़नी चाहिए-
‘ पत्नी को अकेली नही रखना,
राज्य को सुना नही रखना,
राजसिंहासन को सुना नही छोड़ना,
भोजन को सुना नही रखना ओर
सम्पत्ति को सुना नही छोड़ना। याद आ रही है गुरुजी की बाते ?
‘पर, मै तुझे अकेली छोड़कर जाने की तो बात ही कहा कर रहा हूं ? यहाँ तू’ अकेली कहा हो? माँ है, पिताजी है, यहाँ मन ना लगे तो राजमहल कहा दूर है ? वहाँ पितृगृह में जाकर रह सकती है कुछ समय। ‘ओह, मेरे स्वामी, पति के बिना नारी सुनी ही होती है !
योवन के दिनों में इस तरह पत्नी का त्याग करके नहीं जाते ! में तो आपके साथ ही जाऊगी ।
‘तुझे तकलीफ होंगी’। ‘मै कष्ट को कष्ट मानुगी ही नही ? आपकी मात्र पत्नि ही नही …. आपकी दासी भी बनुगी ! आपकी मित्र भी बनुगी और समय आने पर माँ भी बनुगी ! पत्नी के पूरे छ: गुण निभाउंगी ।
अमरकुमार हंस पडा। आकाश में चांद भी हंस रहा था। ‘तब तो मुझे तुझे साथ मे ले जाने की, क्यो ?’पर, पहले यह तो कहो…आपको खुद की माताजी अनुमति देगी ?
मै ले लूंगा ।
‘पिताजी ?
‘में उन्हें भी मना लूंगा ।
‘मझे तो नही मना पाये।
‘चूँकि मै तुझे नाराज नही कर सकता न ?
‘पर मेरे आने से आपको तकलीफ तो नही होगी न ? ‘ नही….बिल्कुल नही ….।
तो अब सो जाये । दोनों निद्राधीन हुए। अमरकुमार की विचार माला शान्त हो चूँकि थी।
सुरसुन्दरी की बात सही प्रतीत हो रही थी।
आगे अगली पोस्ट मे…