बंधुमती साध्वीजी को यह पता चला कि मुनिराजश्री मेरे निमित्त से रोज पाप बांधते हैं । अतः अनशन कर जीवन का अंत कर लूं । जिससे मेरे निमित्त से उनको पाप तो नहीं बंधेगा।इस प्रकार भाव दया का चिंतन करके गुरुदेव की अनुमति लेकर अनशन करके शुभ भाव में काल कर वह साध्वीजी देवलोक में गई। महान आत्मायें दूसरों को पाप से बचाने हेतु स्वयं भारी से भारी कष्टों को झेलती रहती हैं। जैसे कि बलदेव मुनि ने पनिहारी के अविवेक को देखकर जीवन भर जंगल में ही रहने का निर्णय कर लिया। जब सोमादित्य मुनि को यह मालूम हुआ कि उसके कारण साध्वीजी ने अनशन कर देह त्याग किया है, तब सोमादित्य मुनि को खूब आघात पहुंचा। ओह! साध्वीजी की कितनी हिम्मत और कैसी अद्भुत वीरता से उनका आत्मबलिदान! मैं कैसा नीच ? जिसने भाव से व्रत का भंग कर दिया और जो एक साध्वी के कालधर्म (मृत्यु) का हेतु बना । मेरे जैसे पापी को जीने का क्या अधिकार है? अब पापों को नाश करने के लिए मैं भी अनशन स्वीकार कर लूं। इस प्रकार विचार कर अनशन करके मुनिश्री मरकर देवलोक में गये। परन्तु मोहनीय कर्म के उदय से आलोचना -प्रायश्चित लिये बिना मर गए । अतः देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर अनार्य देश में जन्म लिया, जहां धर्म का अक्षर भी सुनने को न मिले ।
श्रेणिक राजा और आर्द्रकुमार के पिताश्री दोनों अच्छे मित्र थे। इस कारण वे एक-दूसरे को कीमती उपहार भेजते थे। यह देखकर अभयकुमार के साथ मित्रता बांधने के लिये आर्द्रकुमार ने उसे भेंट भेजी। उसे भव्य भेंट समझकर अभयकुमार ने भी मित्रता बांधने के लिये आदीश्वर भगवान की प्रतिमा मंजूषा में उसे भिजवाई और संदेश में कहलाया कि इस मंजुषा को एकांत में खोलना। रत्नमयी प्रतिमा के दर्शन करने से पूर्वभव में विराधित साधु जीवन का स्मरण होने से उसे वैराग्य आया। आर्द्रकुमार ने दीक्षा लेने का संकल्प किया। माता-पिता के पास आर्यदेश में जाने की आज्ञा मांगी । मोहवश माता-पिता ने सख्ती से इन्कार कर दिया और वह भाग न जाये , इसलिये राजा ने पांचसौ सिपाहियों को उस पर नज़र रखने के लिये आज्ञा की। आर्द्रकुमार को यह परिस्थिति कैद- सी लगने लगी। उसने धीरे-धीरे वर्तन-वाणी के माधुर्य के द्वारा ५०० सिपाहियों का विश्वास जीत लिया । एक दिन मौका देखकर वह घोड़े पर सवार होकर अनार्य देश से रवाना हो गया। उसके बाद समुद्र मार्ग से जहाज में बैठकर आर्यदेश में आकर उसने दीक्षा ली और उसी समय देववाणी हुई कि, अरे ! आर्द्रकुमार अभी तेरे भोगवाली कर्म बाकी है, परंतु भावोल्लास में आकर उसने देववाणी को सुनी अनसुनी कर दी।
संयम लेकर मुनि एक गाँव से दूसरे गांव विहार करने लगे । एक बार मुनि आर्द्र वसंतपुर नगर में पधारे और उद्यान में काउस्सग्ग ध्यान में रहे । वहाँ बालिकायें खेलने के लिये आयी । खेल-खेल में बालिकायें उद्यान में स्तंभ को पकड़ कर कहती कि ये मेरा पति है। श्रीमती नाम की बालिका ने ( जो पूर्वभव की पत्नी देवलोक से च्युत होकर धनश्री शेठ के यहाँ पुत्री रूप में जन्मी थी ) अनजाने स्तंभ की तरह स्थिर रहे हुए मुनि को छूकर कहा कि यह मेरा पति है। फिर पता चला कि यह तो मुनि है। परंतु पूर्वभव के संस्कारों के कारण उसने घोषणा की, कि मैं विवाह करुंगी, तो इस मुनि के साथ ही करुंगी, अन्यथा कुंवारी रहूंगी । देवों ने १२.५ लाख सोनामोहरों की वृष्टि की। पुत्री श्रीमती और धन लेकर उसके पिता धनश्री अपने गाँव गये। मुनि ने अन्यत्र विहार किया।
अब वह कन्या क्रमशः बड़ी हुई, तब उसके पिता योग्य वर की खोज करने लगे। परंतु उसने अपना दृढ़ निश्चय बताया कि मुनि को छोड़कर वह किसी के साथ शादी नहीं करेगी, तब गाँव में आने वाले मुनियों को गोचरी वहोराने के लिये उसे पिता ने कहा। १२ वर्ष बाद वही मुनि वहाँ पधारे। पादचिन्ह से उसने मुनि को पहचान लिया। श्रीमती ने उनके पाँव पकड़ लिये। श्रेष्ठी और राजा ने उनके ऊपर बहुत दबाव डाला। जिससे मुनि ने भी देववाणी को याद कर उसके साथ विवाह के लिये स्वीकृति प्रदान की। विवाह हो गया। परंतु उनका दिल उदास रहा करता था। उन्हें संयम की तीव्र तमन्ना थी। उनको पुत्र हुआ। १२ वर्ष के बाद एक दिन प्रबल पुरुषार्थ कर दृढ़ता से दीक्षा लेने का संकल्प श्रीमती को कहा। वह उदास होकर रुई कातने लगी। लड़का खेल कर घर आया और पूछा कि, “माँ तू रुई क्यों कात रही है?” माता श्रीमती ने कहा, तेरे पिताश्री दीक्षा लेनेवाले है। बालक ने सूत के धागों से पिताश्री के दोनों पाँवो को बारह बार लपेट दिया और तोतली भाषा में कहा कि, अब दीक्षा लेने कैसे जाओगे? मैंने तो आपको बांध दिया है। आर्द्रमुनि का हृदय बालवचन से पिघल गया। उसने आँटी गिनी, तो बारह थी। इसलिये दूसरे १२ वर्ष गृहवास में रहें।
इस प्रकार २४ वर्ष गृहवास सेवन करने के पश्चात पुत्र उमर लायक हो जाने से पुनः चारित्र ग्रहण कर आर्द्र मुनि बने। दूसरी तरफ ५०० सिपाही जो आर्द्रकुमार को ढूंढ़ने निकले थे। वे राजा के डर से वापस अनार्य देश में नहीं गये। परंतु वहीं रहकर चोरी करने लगे। एक दिन आर्द्रमुनि को वह विहार में मिले। उनको उपदेश देकर दीक्षा दी। उसके बाद ५०० मुनि के साथ मगधदेश में आर्द्रमुनि पधारे और वहाँ उत्कृष्ट साधना कर आर्द्रमुनि मोक्ष में गये। यद्यपि आर्द्रकुमार ने पूर्वभव में कायिक पाप नहीं किया था। सिर्फ मानसिक पाप ही किया था, तथापि आलोचना नहीं लेने से पापों के गुणाकार हो गये, जिससे अनार्य देश में जन्म और दीक्षा लेने के बाद २४ वर्ष तक गृहवास में रहना पडा। यूं तो इस भव में आत्मा की शुद्धि हो जाने से आर्द्रकुमार मोक्ष में गये, परंतु बीच में कितनी तकलीफें पड़ी। अतः हमें शुद्ध भाव से आलोचना करनी चाहिए।