दीये मद्धिम हुऐ जा रहे थे। अमरकुमार और सुरसुन्दरी-दोनों को क़रीब करीब समान शिक्षक मिला हुआ था। व्यवहारिक एवं धार्मिक दोनों तरह का शिक्षण उन्हें प्राप्त था। एक से वातावरण में दोनों का लालन -पालन हुआ था। संस्कार भी दोनों के समान थे। दोनों के विचारो में साम्य था। दोनो के आदेशो में कोई टकराव न था। दोंनो की जीवन पद्धति में सामंजस्य था। इसलिए ही तो शादी के प्राम्भिक दिनों में भी उनका प्रेमालाप तत्वज्ञान से हराभरा रहता था।उनकी ऊर्मियो ने,उनके आवेगों ने किनारे का उल्लंघन नही किया था।स्थल एवं समय की समानता उन्हें पूरी तरह थी।
अध्यन्न पूर्ण होने के पश्चात अमरकुमार अपनी पेढ़ी पर आया जाया करता था। हालांकि, वह स्वयं कोई व्यापार नही करता था। पर मुनियो के कार्यकलापों को देखता था। व्यापार की रीति-नीति को समझता था।तरह तरह के देशों में से आने-जाने वाले व्यपारियो से मिलता था। उनके साथ बाते करता था और उनके बारे में जानकारी लेता था।
उसे व्यापार करने की जरूरत तो थी ही नही। धनावह सेठ के पास अनगिनत सम्पति थी। संतान में अकेला अमरकुमार ही था। सारी सम्पत्ति का वही वारिस था।फिर भी अमरकुमार का अंतर मन पेढ़ी पर नही बैठता था।उसका मन तो देश – विदेश में घूमने का इच्छुक था।
उसके दिल मे सुरसुन्दरी के प्रति अटूट प्यार था, फिर भी वह भोगविलास में डूब नही गया था। धर्मपुरुषार्थ एवं स्वपराक्रम के प्रति उसका आकर्षण पुरा था।योवन सहज आवेग या, आकर्षण था, फिर भी व्यापारी के पुत्र को होना चाहिए वैसा व्यपारिक दिमाग भी उसके पास था।
सुरसुन्दरी के साथ का उसका सँसार भी सुखपूर्ण है। आनन्द से सभर है। एक साल बीता, दूसरा साल बीता।
आगे अगली पोस्ट मे…