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मन की मुराद – भाग 6

राजपुरोहित को बुलाकर शादी का मुहूर्त निकलवा दे।
जी हाँ, शुभ शीघ्रम! शुभ कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए..
तो कल आप इसी समय यहाँ पधार जाना… मै राजपुरोहित को बुलवा लुँगा।
जेसी आपकी आज्ञा! अब मै इजाजत चाहुंगा…
घर पर जाकर अमर की माता को यह समाचार दूँगा तब तो वह अत्यंत आहाद से भर जायेगी।
हा , आप घर जाइये पर रथ में ही जाना… रथ बहार ही खडा है.. अब तो आप हमारे समधी हो गये।
महाराजा ने हंसते हंसते दरवाजे तक जाकर सेठ को बिदा दि। सेठ रथ में बैठकर घर की ओर चल दिये।
कितने सरल- विनम्र और विवेकी सेठ है – राजा मन में बोले और जाते हुए रथ को देखते रहे ।रथ के ओजल होते ही महाराजा महल में आये वे रतिसुन्दरी के कक्ष में पहुचे। वहा रतिसुन्दरी एवं सुरसुन्दरी दोनों बतिया रहे थे ।सुरसुन्दरी माँ के गले में बाहे डालकर माँ से लिपटी हुई कुछ बोल रही थी.. रतिसुन्दरी उसकी पीठ
पर हाथ फेरती हुई मुस्कुरा रही थी। राजा के आते ही दोनों खड़ी हो गयी।
क्यों बेटी… अपनी माँ को ही प्यार करोगी… हमें नहीं? ओह … बापू.. और सुरसुन्दरी महाराज के कदमो में झुक गयी।
राजा ने उसको उठाकर अपने पास बिठाते हुए कहा- सेठ को महल के दरवाजे तक पंहुचा कर आया।
समधी का आदर तो करना ही चाहिये न!
रति सुन्दरी ने कहा- अपन को एक उत्तम और सच्चा स्नेही स्वजन परिवार मिला, देवी ! धनावह श्रेष्ठि वास्तव में उत्तम पुरुष हे
और अमर कुमार? रतिसुन्दरी सुरसुन्दरी के सामने देखकर हस दी
सुरसुन्दरी मुह में दातो के बिच आँचल का छोर दबाये हुए वाह से भाग गयी।
राजा रानी दोनों मुझ मन में खिलखिला उठे।

आगे अगली पोस्ट मे…

मन की मुराद – भाग 5
May 16, 2017
कितनी ख़ुशी कितना हर्ष! – भाग 1
May 23, 2017

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