सुबह का प्रथम प्रहर बीत चुका था । सुरसुन्दरी प्राभातिक कार्यों से निवुत्त होकर, उपाश्रय में जाने की तैयारी करने लगी । दासी को भेजकर रथ तैयार करवाया और माता की इजाजत लेकर , रथ में बैठकर वह उपाश्रय पहुँची ।
विधिपूर्वक उसने उपाश्रय में प्रवेश किया ।
‘मत्थएण वंदामि’ कहकर मस्तक पर अंजलि जोड़कर आचार्य श्री को प्रणाम करके , पंचांग प्रणिपात करके, विधिवत् वंदना की । आचार्य श्री की अनुमति लेकर , वस्त्रांचल से भूमि का प्रमार्जन करके विवेकपूर्वक बेठी ।
‘तेरी मां का संदेश मिल गया था । तू योग्य समय पर आई है । अभी अमरकुमार भी आना चाहिए … उसका भी यही सयम है अध्ययन के लिये आने का । ‘
सुरसुन्दरी की नज़र द्वार की तरफ गई । अमरकुमार ने उसी समय उपाश्रय में प्रवेश किया …. और गुरुदेव को वंदना की …। सुरसुन्दरी को प्रणाम किया… सुरसुन्दरी ने भी प्रणाम का जवाब प्रणाम करके दिया । अमरकुमार योग्य जगह पर बैठा ।
गुरुदेव ने अमरकुमार से कहा ‘अमर, आज सुरसुन्दरी ‘अनेकान्तवाद’ समझने की जिज्ञासा से आई है । हालांकि , तुझे तो अनेकान्तवाद का विशद बोध प्राप्त हो ही चूका है , फिर भी तुझे सुनने में आनंद आयेगा और विषय विशेष रूप से स्पष्ट होगा ।’
‘अवश्य गुरुदेव ! आपके मुख से पुनः अनेकान्तवाद की विवेचना सुनने में मुझे बहुत आनंद मिलेगा । ‘ अमरकुमार ने सुरसुन्दरी के सामने देखा और कहा :
‘गुरुदेव के मुँह से इस विषय को सुनना भी एक अनूठा आनन्द है , सुन्दरी !’
‘गुरुदेव की कुपा से मैं इस विषय को भलीभांति समझ पाऊंगी … मुझे अत्यंत आहाद हो रहा है !’
दोनों की निगाहें आचार्यदेव की और सिथर हुई । आचार्यदेव ने विषय का प्रारंभ धीर गम्भीर स्वर में किया :
‘इस विश्व में दो तत्व हैं । जीव और जड़ । जीव अंनत है तो जड़ द्रव्य भी अनन्त हैं । हर एक द्रव्य में अनेक गुण और अनेक पर्याय रहे हुए होते है यानी द्रव्य की परिभाषा ही ‘गुणपर्यायवेद द्रव्यम’ की गई है । गुण-पर्याय के बगैर कोई द्रव्य ही ही नही सकता ।
‘गुरुदेव , गुण और पर्याय के बीच भेद क्या है ?’ सुरसुन्दरी ने पूछा ।
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