‘परम उपकारी गुरुमाता, आज मैं धन्य हुई। आपकी कुपा से मैं कुतार्थ हुई। आपके पावन चरणों में बैठकर सर्वज्ञ – शासन के तत्वों का अवबोध प्राप्त करने के लिये मैं भाग्यशाली बन पाऊंगी। आपके इस उपकार को मैं कभी नहीं भूलूंगी। कुपा करके आप मुझे समय का निदेर्श दें ताकि आपकी साधना-आराधना में विक्षेप न हो और मेरा अध्ययन हो पाये….आपको अनुकूल हो उस समय मैं रोजाना आ सकूं।’
साध्वीजी ने उसे दुपहर का समय बताया। भावविभोर होकर पुनः वंदना करके सुरसुन्दरी अपने महल को चल दी।
सुन्दरी सीधी पहुँची अपनी माता रतिसुन्दरी के पास। साध्वीजी के हुए प्रथम परिचय की बात हर्ष भरे गदगद हदय से मां को बतायी। रतिसुन्दरी प्रसन्न हो उठी।
‘वत्से, ऐसा समागम मनुष्य के पापों को नष्ट करता है। त्यागी और ज्ञानी आत्माओं के वचन मनुष्य के संतप्त हदय को परम शान्ति प्रदान करते है। उनसे श्रद्धा से और विनयपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान जीवन की कठिनाइयों में मनुष्य को मेरुवत निष्चल रखता है।’
‘और मां, तुझे एक दूसरे समाचार दू। मैं कल अमर की हवेली में गई थी और देवी धनवती को मैंने साध्वीजी के बारे में पूछा तो उन्होंने मेरी धर्मबोध पाने की इच्छा जानकर प्रसन्नता व्यत्त की और….अमर को भी किन्ही साधु-पुरुष के पास धर्मबोध के लिये जाने की प्रेरणा दी।’
‘बहुत अच्छी बात है यह तो। क्या अमर ने मान ली बात ??
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