सुरसुन्दरी को रथ से उतरते देख अमरकुमार तुरन्त मां के पास जाकर बोला। ‘मां, राजकुमारी आयी है अपनी हवेली में।’
धनवती चौकति हुई खड़ी हुई और उसे लेने के लिये सीढ़ी पर पहुँची और इतने में तो सुरसुन्दरी ने धनवती के पैर छुए।
‘अरे, बेटी, यहा पर यों यकायक ? मुझे कहलाना तो था? मैं तो रसोई में थी। यह तो अमर ने मुझसे कहा तो मालूम हुआ कि तू आयो है।’
‘माताजी, इसमें कहलाने का क्या?’ वो बोलने ही जा रही थी कि ‘अमर का घर तो मेरा ही घर है न ?’ पर शब्द उसके गले में ही अटक गये। अमर उसके पास ही आकर खड़ा था। धनवती सुरसुन्दरी की अपनी ओर खींचती हुई उसे अपने कमरे में ले गयी। अमर भी दोनों के पीछे-पीछे चला आया कमरे में। धनवती ने राजा-रानी की कुशलता पूछी। दासी आकर दूध के प्याले और मिठाई रख गयी।
‘माताजी, मैं आपसे एक बात पूछने आयी हूँ यहाँ। मेरी मां ने ही मुझे यहां भेजी है आपके पास।’
‘पूछ न, जो भी पूछना हो….।’
‘दरअसल …’ सुरसुन्दरी को झेंपते देखकर अमर ने कहा ‘क्यों कोई गुप्त बात है क्या? तो मैं बाहर चला जाऊं।’
‘नहीं नहीं…ऐसी कोई बात नहीं हैं… क्या अभी अपने नगर में कोई विदुषी साध्वीजी रहे हुए हैं?’ प्रशन पूछकर सुरसुन्दरी ने अमरकुमार के सामने देख लिया। अमर के चेहरे पर परेशानी और अचरज की रेखाएं खिंच आयी थी। सुरसुन्दरी मन ही मन हंसी।
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