‘बेटी…..’ रानी ने सुन्दरी की ओर मुड़ते हुए कहा- ‘हम जो सोच रहे थे उसमें तेरे पिताजी की अनुमति सहज रूप से मिल गयी।’ रानी रतिसुन्दरी खुश होकर बोली।
उसने राजा से कहा- ‘आप यहां पधारे, इससे पहले हम मां-बेटी यही बातें कर रही थी। सुन्दरी की इच्छा है धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने की, पर यह ज्ञान सुन्दरी पायेगी किससे? कौन सुन्दरी को बातें सिखायेगा?’
‘धर्म का ज्ञान तो धर्ममय जीवन जीनेवाले, साक्षात् जो धर्ममूर्ति हो वो ही दे सकते हैं और उन्हीं से लेना चाहिए। जिसके जीवन में धर्म न हो….और धर्मतत्व का ह्रदयस्पर्शी बोध न हो, वह फिर चाहे शास्त्रों का पंडित क्यों न हो, उससे शास्त्रज्ञान मिल सकता है, पर जीवन धर्मतत्व का बोध नहीं मिल पाता है। इसलिये, सुन्दरी को यदि कोई धर्ममूर्ति साध्वीजी मिल जाय तो अच्छा रहे।’
‘साध्वीजी के पास? पर?’
चिन्ता मत करो देवी….तुम्हारी बेटी यदि वैरागी बनकर साध्वी भी हो जाये….तो अपना परम सौभाग्य मानना…। अपनी पुत्री यदि मोक्षमार्ग पर चल देगी तो शायद कभी अपन को भी इस दावानल से भूलसते संसार में से निकाल सकेगी ।’ राजा रिपुमदर्न का अंत:करण बोल रहा था। ‘देवी, निस्वाथ …. निस्पुही और निष्पाप साध्वीजी जो धर्म-बोध देंगे वह सुन्दरी को आत्मा को स्पर्श करेगा ही । सुन्दरी को ऊँची कक्षा के संस्कार मिलेंगे। उच्च आत्माओं के आशीर्वाद प्राप्त होंगे। किसी दिव्यतत्व को प्राप्ति हो जायेगी।’
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