राजा रिपुमदर्न मंत्रणा खंड में से निकलकर रानी रतिसुन्दरी के पास आये । सुरसुन्दरी अपनी माँ के पास ही बैठी थी। मां-बेटी बातें कर रही थी। दोनों ने खड़े होकर राजा का विनय किया। रिपुमदर्न भद्रासन पर बैठा । रानी और राजकुमारी भी उचित स्थान पर बैठी।
‘ बेटी, तेरे कलाचार्य आये थे। अभी ही वे गये। उनके पास तेरा अध्ययन – शिक्षागण पूरा हुआ है…. उनका वस्त्रालंकारो से सतकार करके मैंने विदा दी है।’
‘अब मेरी लाड़ली को कौनसा अध्य्यन करवाने का सोचा है ?’ रानी रतिसुन्दरी ने पूछा।
‘ मैं इसीलिये तो , तुम्हारे साथ परामर्श करने के लिये ही यहां आया हूँ।’
‘मुझे लगता है कि सुन्दरी को अब धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान देना चाहिए। इस ज्ञान के बगैर तो सारी कलाएं अधूरी है।’
‘तुम्हारी बात सही है। सुन्दरी यदि धर्म को समझे तो वह उसके जीवन में काफी हद तक उपयोगी हो सकता है। धर्म के मौलिक तत्व ही मनुष्य के मन को प्रसन्न रख सकते हैं। आध्यात्मिक विचार धारा से ही इन्सान आत्म-तृप्ति-भीतरी संतोष को पा सकता है।’
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