मानव की गरिमा या गर्ता का आधार उसके भवो की उत्तमता अधमता पर निर्भर करता है। जीवन की प्रत्येक धर्म प्रवृति या धार्मिक क्रिया का सेनापति *भाव* है। कोई भी क्रिया या प्रवृति के साथ शुभ भाव जुड़े तो अनिवार्य है। क्योंकि भवो के बिना हमारी सारी क्रिया प्रवुत्ति या साधना निरर्थक या निरस बन जाती है।
जैन शाशन के अंदर दान, शील, तप, भाव यह चार भावना (धर्म) बताने में आयी है। इन चारों में भाव को प्राण रूप माना गया है।
जिस मानव का दान, शील, तप, शुभ भाव से रहित होता है, उसे समय जाने के बाद अर्थ की हानि, भूख की पीड़ा और शरीर की यातना ही प्रात होती है। *पानी के बिना मोती की कोई कीमत नही होती है
जीवन रूपी मोती भावरूपी पानी के बिना व्यर्थ है
प्रभु वीर के समय की एक घटना चित्त के भावों की महत्ता दर्शाती है।
प्रसन्न चंद्र राजर्षी स्वयं की साधना में मस्त थे। परंतु जब उनके कानों में सैनिकों के शब्दों में राज्य की दशा सुनी तो उनका मोह जाग गया। अनादि के भाव जाग्रत हो गए। वहाँ पर प्रसन्न चंद्र राजर्षि विचारो के सागर में नीचे उतरते गए। बहार शांति थी और अंदर तूफान था। बहार तप था अंदर संताप था। वेश मुनि का था वेदना राज की होने लगी थी। फिर क्या खुद को राजा समझ कर दुश्मनो के साथ भयंकर युद्ध प्रारम्भ कर दिया।
एक समय प्रभु को श्रेणिक ने पूछा भगवान अभी अगर प्रसन्न चंद्र राजर्षि देहान्त हो जाये तो कहाँ जायेगे??
प्रभु ने जवाब दिया की सातवीं नरक में। श्रेणिक महाराजा को लगा की प्रभु ने मेरी बात शायद नही समझी है। उन्होंने थोड़ी देर बाद पुछा यह प्रश्न तो प्रभु ने जवाब दिया उत्तमो उत्तम देव गति में।
श्रेणिक के आश्रर्य का पार नही रहा। थोड़े से समय के अंतर में भगवान ने एकदम विपरीत बात क्यों कही।
तो प्रभु ने कहाँ की वह मानसिक संग्राम लड़ रहे थे। और उसमें मृत्यु पाये तो नरक। और जैसे ही उन्हें खुद का ख्याल आया मुनि अवस्था के भान में आये तो उन्होंने पश्याताप प्रारम्भ किया। भावो से पश्याताप करते करते केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवदुंदुभि का नाद सबने सुना। यह है जीवन में भावो की प्रधानता।।