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दुसरो की भाषा सदा निराशा

वाणी वह मानवसृष्टी का एक उत्तम वरदान है और इस वरदान को सफल करने का माध्यम भाषा है। जिस तरह बिजली को प्रसरित करने के लिये तार चाहिए ठीक उसी तरह से वाणी को प्रसरित करने के लिए भाषा चाहिए।

वर्त्तमान विश्व आज भी हज़ारो भाषाओ और बोतीओ की समृदि को धारण करता है। भाषाज्ञान भी ज्ञान विकास का एक मजे का क्षेत्र है। विविध भाषा का ज्ञान का होना भी विद्वता का प्रतिक है। अनेक भाषाओ पर प्रभुत्व होना गौरव और सम्मान का विषय है।अनेक भाषाओ पर प्रभुत्व धराणे वाला व्यक्ति खुद आदर का पात्र गिना जाता है।

विद्वान जैन मुनिराज जम्बू विजयजी महाराजा 18 भाषाओ के जानकर थे। मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के अलावा अन्य भाषा को सिखने का प्रयत्न करना चाहिए।

हमारी प्राचीन और पौराणिक( संस्कृत, प्राकृत, अर्धमगधी, पाली) भाषाएँ खास सिखने जैसी है।

आज विदेशी भाषाओ को सिखने का उत्साह तो दिखता है। परन्तु हमारी गौरवान्वित समृद्व प्राचीन भाषा को सीखना दुर्लभ बन गया है।

अरे इन प्राचीन भाषाओ में ही हमारा साहित्य वारसा
आलेखित है।

आज भी विश्व के 35 राष्ट्र में 450 विश्वविद्यालय में संस्कृत पढनी अनिवार्य है। अमेरिका से लगाकर गल्फ देशो में भी संस्कृत का अभ्यास चलता है।

इस तरह विदेशी भाषा सिखना उत्तम बात है। और उसमे भी आज के युग में अंग्रेज़ी भाषा सिखना खूब जरुरी है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय भाषा है। और इसका खूब चलन है।

विश्व के साथ जुड़ने का यह प्रबल माध्यम है। परंतु आज के समय स्तिथि विषम है। घर जलाकर तीर्थ यात्रा करने जैसा चलन आ गया है , जो चिंता का विषय है।

आज के युग में हमारी युवा पीढ़ी मातृभाषा को भूलकर अंग्रेजी भाषा अपना रही है। अंग्रेजी भाषा का स्वयं का अपना वैभव है। इसकी मर्यादा भी है। यह मातृभाषा जैसी सरल नही है। माँ शब्द में जो प्रेम उभरता है, वह Mother में नही है। बेटा शब्द जो वात्सल्य भरता है, वह Son में नही हैं। यहाँ पर अंग्रेजी भाषा के प्रति भय पैदा नही कर रहा हूँ बल्कि जो मातृभाषा की तरफ पीठ फैरकर बेठे है उन लोगो का ध्यान मातृभाषा की ओर लाने की आवश्यकता है ।।

धर्म वह कोई सिखने की वस्तु नहीं सहज स्वभाव है
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”वेशभूषा” देश और संस्कृति के अनुरूप होना चाहिए
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