राजनैतिक मे रोज शाम- दाम- दण्ड और भेद नीति का प्रयोग होता है। तो आज की धर्म नीति भी इसी पर आधारित है। रोज जैसे राजनेता अपने स्टेटमेंट बदलते है। वैसे ही समाज के नेता अपनी बातो से पलट जाते है। शासन को आगे बढाना है प्रभु वीर को हर जन के दिलो तक पहुँचना होगा।
इसके लिए हमे सभी को अनेक कार्य को अंजाम देना होगा। हमे अपने पक्षो से ज्यादा वीर प्रभु के शासन को महत्व देना होगा। यहाँ पर हमे राजनीति नही धर्म नीति करना है। इसके बारे मे सोचना है।
सवि जीव करू शासन रसी भाव को लेकर चलना है। जो आज गायब हो चुका है। हम सभी अपने अलग- अगल मतो पर चल रहे है। हमारे कामो से हम ही टूट रहे है। तीर्थो के आपसी मन- मुटाव हो गये है। संतो के विभाग हो गये है। आप अपनी बात को रखो पर दुसरो पर घातक मत बनो। हम मण्डन से आगे बढ़ेंगे और खण्डन से विनाश होगा। इस खण्डन पर हमे सम्पूर्ण तरह रोक लगानी होगी। हम श्रमण है। संत है। साधु है। हम महाव्रतो का पालन करने वाली विश्व की श्रेष्ट परम्परा के अंग है। तो हम इस बात को कही भुल तो नही जाते है?
हमारा चिन्तन- मन्थन प्रभु के कार्यो को करने का तरीका हमे यह भूला तो नही देता है? जिससे जिनशासन धरोहर सम्पत्ति का नुकसान हो रहा है। हमे इन सारी बातो पर गहरा मन्थन करना है।
JAIN के कुछ सामान्य सिद्धांत को एकता के सूत्र मे पिरोना है जिससे जैन धर्म का विस्तार हो सके। हमारे आपसी संबंध मधुर होते जाए।
हमारी एकता मे ही हमारा विस्तार है। और यह विस्तार तभी संभव है जब आपसी मतभेद को भूलकर नये विचारो पर एकता का स्कूल आवाम मे प्रदर्शन करे। जो हमारी एकता का खुले आवाम मे प्रदर्शन करे। जो हमारी एकता को विश्व क्रान्ति बताए और लोगो का आत्मकल्याण हो।।