हम भारत देश में रहते है। इस देश की खासियत हैं यहाँ विविधता में एकता नज़र आती हैं। यहाँ लोकतंत्र हमारे देश की आत्मा हैं। परन्तु इसमें समाजवाद और सेक्युलरे जिम की जगह ” सर्वोदय” शब्द और सेक्युलरेजिम की जगह “सर्व धर्म समभाव” का स्थान होना चाहिए। तभी देश सही दिशा में चल सकता हैं।
आज 21वीं सदी में इंसान धर्म से दुर हो गया हैं। गीता, बाईबल, कुरान, आगमो से कोई लेना देना नही हैं। वह तो बस इसे पढता हैं। याद करता हैं तोते की तरह बोलता और अहंकार का पोषण करता हैं।
यह सब धर्म ग्रन्थ रटने के लिए नही हैं आचरण में उतारने के लिए हैं।
एक दिन उपाश्रय में बेठा था। एक व्यक्ति आया और उसने कहा मै रोज गीता का पाठ करता हूँ। मेरी बहुत श्रद्धा हैं। मैंने उसे कहा की गीता को पढ़ना बंद कर दे। वः एक दम से चमक गया और बोला की इस जवाब से मेरे भाव टूट गए। मैंने उसे बैठने को बोला और फिर मेरी बात को प्रारंभ किया।
भाई आप सालो से गीता का पाठ कर रहे हो तो अब आपकी जिन्दगी में आत्मसात् हो जाना चाहिए। और वह आत्मसात् हो गई तो अब उसे पढने की कोई जरुरत नही हैं। और वह अभी भी आपके जीवन में उतारी तो उसको पढ़ने का कोई मतलब नही हैं। श्रीकृष्ण ने गीता के धर्म की प्रधानता बताई हैं। आप आपके हर कर्तव्य को (धर्म) ईमानदारी से निभारहे तो गीता आपके आचरण में हैं। आप रोज ऑफिस 2 मिनिट जल्दी जाये और रोज ऑफिस से 2 मिनिट लेट निकले । ऑफिस में आप हर व्यक्ति का काम उस तरह करे जैसे हर समस्या आपके पास स्वयं कृष्ण ले कर आये हैं। तो ही गीता का रोज पाठ सार्थक हैं।
जगत में दो गीता विद्यमान हैं। एक पोथी गीता दूसरी जीवन गीता पोथी। गीता तभी सार्थक है जब वह जीवन गीता में है।
भारत में रोज रोज नये धर्मस्थान बांधे जा रहे है। मंदिरो की संस्था रोज बढ़ रही है। पर इसके साथ धर्म का आचरण क्या बढ़ रहा है। नयी मंदिर बंधते है। उसके साथ क्या नितिमय जीवन उदय होता हैं।